विकास के आभूषण
सृष्टि में परिवर्तन नित्य है। कुछ प्रकृति करती रहती है, कुछ मनुष्य का स्वभाव। उसे भी नया-नया ही आकर्षित करता है।

- गुलाब कोठारी
सृष्टि में परिवर्तन नित्य है। कुछ प्रकृति करती रहती है, कुछ मनुष्य का स्वभाव। उसे भी नया-नया ही आकर्षित करता है। इसी कारण परम्पराएं तक टूट जाती हैं, शास्त्र छूट जाते हैं। परिवर्तन दो दिशाओं में चलता है-विद्या की ओर तथा अविद्या की ओर। आज की शिक्षा में विद्या का सर्वथा अभाव हो गया। व्यक्तित्व निर्माण आज शिक्षा का लक्ष्य ही नहीं है। अनुशासन का पूर्ण अभाव और स्वच्छन्दता की मानसिकता ने विकास को नई दिशा में मोड़ दिया।
शिक्षा ने जमीन छोडने को प्रेरित किया, तो शिक्षा ने जीवन के आयाम तेजी से बदलने शुरू कर दिए। तकनीक के विकास व सूचना के प्रसार की गति, मानव की पकड़ से बाहर होती जा रही है। कहीं मानव मशीन होता जान पड़ता है, तो कहीं भोग की वस्तु। ईश्वर की श्रेष्ठ कृति तो अब कहलवाना भी नहीं चाहता। इसे तो गिरना है।
तकनीक के विकास का एक उदाहरण है 'कृत्रिम बुद्धि' अथवा 'आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस'। दूसरा अजूबा है व्यक्ति का ***** परिवर्तन। महाभारत में शिखण्डी ने यह प्रयास किया था, किन्तु भीष्म ने उसे स्वीकार नहीं किया था। आज तो स्वेच्छा से लडक़े-लड़कियां अपने प्रकृति प्रदत्त स्वरूप को बदलने लगे हैं। जरा सोचिए! यदि कोई विवाहित-सन्तान शुदा पुरुष स्वयं को स्त्री बनाकर किसी अन्य पुरुष के साथ चला जाए! भावी समय इन घटनाओं की बहुलता का साक्षी होगा। व्यक्ति स्वयं के शरीर से भी ऊबने लगा है जबकि शरीर तो आत्मा का आभूषण है।
एक अन्य परिवर्तन आया नर-नारी के बीच बढ़ती खाई का। इसकी जड़ में समानता के अधिकार का विकृत रूप रहा। लडक़ों ने जवाब में लड़कियों से पल्ला झाडऩा शुरू कर दिया। दाम्पत्य दूर की कौड़ी दिखाई देने लगी। शादी की बढ़ती उम्र ने अनेक विसंगतियां भी पैदा कर दी। उससे आगे अब समलैंगिकता के व्यवहार की बाढ़ सी आने लगी। पहले भी रही होगी, किन्तु समाज में अपराध की अवधारणा का भारी दबाव था। शिक्षा और अधिकारों के संघर्ष ने इसे कानूनी जामा पहना दिया। अनेक देशों में सामान्य रूप से जीवन का अंग बन गया। अब समलैंगिक विवाह अनेक देशों में प्रचलन में आ गए। जीवन में एक नया आभूषण जड़ गया।
अब सोचिए! दो महिलाएं दम्पति के रूप में साथ रह रही हैं। उम्र तो इनकी भी बढ़ेगी न। मान लें इनको भी बुढ़ापा का सहारा चाहिए। किसी बच्चे को गोद ले सकते हैं। नया स्वरूप देखिए! बच्चे का पिता कौन होगा? सम्पूर्ण विकसित विश्व में आज यह बहस का मुद्दा बना हुआ है। बच्चा किसके खानदान का नया आभूषण कहलाएगा? पुराने घर का?
शिक्षा के पेट पालने की, कॅरियर की अवधारणा ने जीवन को बिकाऊ कर दिया। जीवन की कोई मान्यता धन से बड़ी नहीं रह गई। सारे प्रोफेशनल्स फीस लेकर कुछ भी कर देने से नहीं हिचकते। भ्रष्टाचार का कारण तो इन लोगों के नकली सर्टिफिकेट्स ही तो हैं। शूकर के लिए विष्टा ही पकवान होती है। समाज से जब मानवता का लोप होने लगता है, तब ऐसी ही परिस्थितियां भविष्य का संकेत कर करके चेतावनी देती हैं।
धन के स्वरूप ने मानवता को कुरूप कर दिया। शिक्षा ने विकसित देशों के लिए एक नया आभूषण तैयार किया है। यहां बच्चे इस बात से परहेज करने लगे हैं कि उनको 'लडक़ा' या 'लडक़ी' न कहा जाए। व्यवहार में भी यह भेद नहीं रहना चाहिए। कौन प्राणी अपनी सन्तान को कहता है कि तू 'बेटा' है या 'बेटी' है? यहां तक कि जन्मदिन के उपहार में भी इस प्रकार के संकेत नहीं झलकने चाहिए। एक नया शब्द चल पड़ा है-यूनिसैक्स। अर्थात् वस्त्रों की दुकानें भी अब भिन्न नहीं होंगी। वस्त्र भी भिन्न नहीं होंगे। इस बात का उत्तर कहीं सुनाई नहीं पड़ता कि बड़े होने पर अचानक क्या होगा? लडक़े को कोई अन्तर आने वाला नहीं है। लडक़ी का शरीर मात्र रह जाएगा। आज भी सारा विकास का कष्ट लडक़ी ही झेल रही है। बार-बार घर भी उसको ही बदलने पड़ रहे हैं। कॅरियर-बेमेल जीवन-कृत्रिम चिंतन या होड़ की भारी कीमत चुका रही है। मां के घर में बेटी और दौहित्रि को अकेले रहते देखा जा सकता है। भारत भी वही आभूषण धारण करने को व्याकुल दिखाई पड़ता है।
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