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उत्तर प्रदेश : हवा हुआ विकास का मुद्दा

locationकरौलीPublished: Mar 02, 2017 12:00:00 pm

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बड़ी उम्मीद बंधी थी जब पहले तीन चुनावों में देश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने विकास पर ही पूरे चुनाव अभियान केन्द्रित रखा।

पुरानी आदतें मुश्किल से छूटती हैं। अंग्रेजी की यह कहावत उत्तर प्रदेश के चुनाव के चौथे चरण के बाद चरितार्थ हो गई। एक बार फिर सांप्रदायिक इबारत, देश के सबसे बड़े राज्य के 14 करोड़ मतदाताओं को उद्वेलित करने लगीं। दोष किसी एक राजनीतिक दल पर मढऩा गलत होगा। 
यह भी तर्कशास्त्रीय दोष होगा कि ‘किसने पहले पत्थर फेंका’ के आधार पर दोषारोपण करें क्योंकि जाति, उपजाति, सम्प्रदाय या क्षेत्र में बंटे मतदातों को कोई प्रत्यक्षरूप से अपनी ओर खींचता है तो कोई परोक्षरूप से। 
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के एक फैसले में जाति या धर्म के आधार पर वोट मांगने को अनुचित ठहराया लेकिन अगले ही दिन एक क्षेत्रीय दल की नेता ने बताया कि उन्होंने कितने अल्पसंख्यकों को टिकट दिया। जाहिर है दूसरी पार्टी बहुसंख्यकों को लुभाने के लिए कहेगी कि उसने एक भी अल्पसंख्यक को टिकट नहीं दिया। 
प्रश्न दोषारोपण का नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या 70 साल के शासन के बाद भी जब कानून व्यवस्था जर्जर होती है, जब बच्चों को घर से कई किलोमीटर दूर तक पढऩे के लिए स्कूल नहीं मिलता और अगर मिलता भी है तो शिक्षक जुगाड़ करके कक्षा में हफ्तों नहीं आते या जब घूस देकर बिजली चोरी की खुली छूट दी जाती है, जब मनरेगा का पैसा दस साल पहले मरे हुए व्यक्ति को काम करता दिखा कर हड़प लिया जाता है, जब किसानों के मुआवजे का पैसा लेखपाल बिना घूस लिये नहीं देता तो क्या इसमें कोई जाति या क्या कोई सम्प्रदाय आता है? 
बड़ी उम्मीद बंधी थी जब पहले तीन चुनावों में देश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने विकास पर ही पूरे चुनाव अभियान केन्द्रित रखा। यहां तक कि क्षेत्रीय और जातिवादी मानी जाने वाली सत्ताधारी समाजवादी पार्टी और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी ‘काम बोलता है’ को युद्धगान के रूप में रखा। 
यह देख कर मायावती भी शुरुआत में जातिवादी और अल्पसंख्यक केन्द्रित स्वर से बचती रहीं लेकिन चौथा दौर शुरू होते ही, बारिश में रंगे सियार की मानिंद इन राजनीतिक दलों का बनावटी रंग उतरने लगा। 
जन धरातल पर सही मुद्दों को उठाना और उन मुद्दों पर अपनी सार्थकता साबित करते हुए जनता में समर्थन मांगना राजनीतिक दलों की, खासकर प्रमुख राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी होती है। लेकिन, अचानक जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी वही सुर छेड़ते हैं तो देश के भविष्य पर चिंता होने लगती है। कोई कारण नहीं था कि वे फतेहपुर में यह कहें, ‘अगर गांव में कब्रिस्तान बनता है तो श्मशान भी बनना चाहिए। रमजान में बिजली आती है तो दिवाली पर भी आनी चाहिए। 
अगर होली में बिजली आती है तो ईद पर भी आनी चाहिए। इस संदर्भ में मीडिया ने भी अपनी ओछी मानसिकता का परिचय दिया और अंतिम वाक्य ‘होली में तो ईद में भी’ को संज्ञान में नहीं लिया। लेकिन, देश के प्रधानमंत्री को, विरोधात्मक शब्द जिसके जरिये प्रतीकात्मक रूप से दो सम्प्रदायों को लक्षित किया गया, को लाने की जरूरत क्या थी? 
क्या उनका ढाई साल का विकास का मुद्दा चुक गया था? क्या फसल बीमा योजना का अमल इस राज्य में हुआ था? क्या किसानों के धान की खरीद, राज्य सरकार के भ्रष्ट तंत्र ने की थी? क्या शमशान बनाम कब्रिस्तान की जगह किसान बनाम भ्रष्ट यादव सिंह की संपत्ति का मुद्दा प्रधानमंत्री की गरिमा के अनुकूल नहीं होता? एक अन्य उदाहरण लें, मुख्तार अंसारी को लेकर हुई राजनीति का।
सभी को पता है कि मुख्तार अंसारी वह व्यक्ति है जिसके अपराध इतिहास के कारण ही अखिलेश यादव और उनके पिता मुलायम सिंह के बीच पहला झगड़ा शुरू हुआ। अखिलेश अपनी छवि बनाने के लिए इस अपराधी छवि वाले अंसारी को पार्टी में नहीं लाये। 
नतीजतन अंसारी को बहुजन समाज पार्टी ने पनाह दी। यह सच है कि अल्पसंख्यक ही नहीं बहुसंख्यक वर्ग के एक तबके में भी अंसारी की छवि रॉबिनहुड के समान है जो गरीब पर जुल्म नहीं होने देता। यही नहीं, वह तो उनकी लड़कियों की शादी में खुले हाथ से मदद करता है। 
उसे रॉबिनहुड मानने वाले अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक यह नहीं पूछते कि शादी में देने के लिए अंसारी के पास कौन सा खजाना है और यह किस धंधे से पैसे कमाता है? यह अलग बात है कि मुख्तार का प्रभाव उस क्षेत्र के कम से कम दस सीटों पर है इसीलिए मायावती ने उसे बसपा में दाखिल करते हुए ऐलान किया कि मुख्तार अंसारी बहुत अच्छे, सुसंस्कृत परिवार के हैं। 
अगर देश के प्रधानमन्त्री को भी इस किस्म की राजनीति को निष्क्रिय करने के लिए उन्हीं सांप्रदायिक हथियारों का इस्तेमाल करना पड़े तो यह चिंता की बात है। शायद उनका यह कहना कि किसानों के गेहूं का समुचित समर्थन मूल्य दिलाने के लिए नई नीति लाई जायेगी ज्यादा बड़ा चुनावी हथियार होता क्योंकि अभी मोदी की विश्वसनीयता बनी हुई है। प्रदेश में गांव की महिलाओं के पास गैस की सुविधा मिलना एक बड़ा सकारात्मक मुद्दा होता परन्तु शायद पुरानी आदतें छूटने में वक्त लगता है।

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