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खेती का मर्ज

locationजयपुरPublished: Dec 30, 2018 04:21:23 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

किसान संगठन अब पार्टियों और सरकारों पर कृषि क्षेत्र की दीर्घकालिक नीति का दबाव बनाएं, तभी अन्नदाता सम्मानपूर्वक जीवन का हकदार बन पाएगा।
 

indian farming

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वोट की मजबूरी जो न कराए कम है। पूरे देश में किसान सभी दलों के फोकस में नजर आ रहा है। बीते कई वर्षों की पीड़ा, इस साल किसान आंदोलनों की ताकत और हालिया विधानसभा चुनावों में कृषक समुदाय का फैसला देखने के बाद कोई भी पार्टी इन्हें नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं लेना चाहती। हर दल किसानों का सबसे बड़ा रहनुमा नजर आने की कोशिश कर रहा है। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की नवनिर्वाचित सरकारों ने किसानों की कर्जमाफी के ताबड़-तोड़ फैसले लेकर भाजपा को दबाव में ला दिया है। यही वजह है कि नरेंद्र मोदी सरकार अब राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के लिए कोई बड़ा पैकेज लाकर उन्हें आकर्षित करने की संभावनाएं टटोल रही है। कर्जमाफी से लेकर सीधे किसानों के खाते में नकद अनुदान जैसे विकल्प टटोले जा रहे हैं। लेकिन अब तक के सभी उपाय दुर्घटना के बाद मुआवजा बांटने जैसे कदम से ज्यादा नजर नहीं आते। मूल सवाल अब भी मुंह बाये खड़ा है कि ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था कैसे सुधरेगी या खेती-बाड़ी लाभ का सौदा कैसे बनेगी? इसका दीर्घकालिक दृष्टिकोण किसी भी पार्टी या सरकार की ओर से अब तक नजर नहीं आया है।
यही वजह है कि कृषि क्षेत्र का मर्ज दवा के साथ-साथ बढ़ता ही चला जा रहा है। एक बार कर्जमाफी के बाद अगले सीजन में वह किसान खुशहाल होगा, यह व्यवस्था सुनिश्चित करने के साहसिक उपाय जब तक नहीं होंगे, अन्नदाता की विपदा खत्म नहीं होगी। आपको वे दृश्य ध्यान होंगे, जब लागत से भी कई गुना कम भाव की वजह से किसान अपने आलू, टमाटर, प्याज या लहसुन की फसल सड़कों पर फेंककर खून के आंसू रो रहा था। कर्जमाफी, नकद अनुदान, कृषि बीमा जैसी योजनाएं किसानों का भला कैसे करेंगी, जब तक उसकी फसल के लिए बीज, खाद की उपलब्धता, सिंचाई, भंडारण और उपज के वाजिब मूल्य की व्यवस्था नहीं होगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि तात्कालिक रूप से कर्जमाफी अवश्य होनी चाहिए। लेकिन देश की जनता नीति-नियंताओंं से यह जवाब भी चाहती है कि वर्ष 2008 में मनमोहन सरकार की ओर से की गई 65000 करोड़ रुपए की कर्जमाफी के बाद भी हजारों किसान अब तक आत्महत्या क्यों कर चुके हैं? अभी एक साल पहले उत्तर प्रदेश में करीब 37000 करोड़ रुपए की कर्जमाफी के बाद भी किसानों की हालत पतली क्यों है?

समस्या के वास्तविक निराकरण के लिए सरकारों और पार्टियों को किसान आंदोलनों में शामिल दिखे उन युवा चेहरों पर भी गौर फरमाना चाहिए, जिन्होंने अच्छी पढ़ाई-लिखाई के बाद खेती को व्यवसाय के रूप में चुना। पारंपरिक कृषि छोड़कर नकद फसलों की राह पकड़ी, नई तकनीक का इस्तेमाल किया। लेकिन इसके बावजूद सड़क पर आ गए। उपज की लागत और उन्हेंं मिलने वाले मूल्य का अंतर इसे घाटे के सौदे में तब्दील कर रहा है। उनकी ही उपज को नाम मात्र की लागत पर पैकेज्ड कर या प्रोसेस कर कारोबारी भारी मुनाफा कमा रहे हैं। आम आदमी की जेब से पैसा निकल रहा है, लेकिन किसान की जेब में नहीं जा रहा।

किसानों के खून-पसीने से उगे अनाज का मुनाफा बिचौलियों और आढ़तियों की तिजोरी में जा रहा है। इस दुष्चक्र को भेदने का माद्दा अब तक कोई सरकार नहीं दिखा पाई है। देश भर की कृषि मंडियां किसानों के शोषण का स्थान बन चुकी हैं। वहां कारोबारियों की गोलबंदी के आगे किसानों की उम्मीदें दम तोड़ देती हैं। दूसरी ओर न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा उठाने वाले किसानों का दायरा दस-पंद्रह फीसदी से ऊपर अब तक नहीं बढ़ पाया है।

मृदा परीक्षण योजनाएं, अनुदान पर कृषि उपकरणों का वितरण या किसानों की मदद के लिए बने सरकारी कृषि सहायता केंद्र, ये सब भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं। अगर ऐसा नहीं है, तो बीते बीस साल में ही इन मद का सरकारी खर्च और कर्जमाफी की रकम जोड़ लें, देश का एक-एक किसान अब तक निहाल हो चुका होता। इसलिए किसान संगठन अब पार्टियों और सरकारों पर कृषि क्षेत्र की दीर्घकालिक नीति का दबाव बनाएं, तभी अन्नदाता सम्मानपूर्वक जीवन का हकदार बन पाएगा।

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