समस्या के वास्तविक निराकरण के लिए सरकारों और पार्टियों को किसान आंदोलनों में शामिल दिखे उन युवा चेहरों पर भी गौर फरमाना चाहिए, जिन्होंने अच्छी पढ़ाई-लिखाई के बाद खेती को व्यवसाय के रूप में चुना। पारंपरिक कृषि छोड़कर नकद फसलों की राह पकड़ी, नई तकनीक का इस्तेमाल किया। लेकिन इसके बावजूद सड़क पर आ गए। उपज की लागत और उन्हेंं मिलने वाले मूल्य का अंतर इसे घाटे के सौदे में तब्दील कर रहा है। उनकी ही उपज को नाम मात्र की लागत पर पैकेज्ड कर या प्रोसेस कर कारोबारी भारी मुनाफा कमा रहे हैं। आम आदमी की जेब से पैसा निकल रहा है, लेकिन किसान की जेब में नहीं जा रहा।
किसानों के खून-पसीने से उगे अनाज का मुनाफा बिचौलियों और आढ़तियों की तिजोरी में जा रहा है। इस दुष्चक्र को भेदने का माद्दा अब तक कोई सरकार नहीं दिखा पाई है। देश भर की कृषि मंडियां किसानों के शोषण का स्थान बन चुकी हैं। वहां कारोबारियों की गोलबंदी के आगे किसानों की उम्मीदें दम तोड़ देती हैं। दूसरी ओर न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा उठाने वाले किसानों का दायरा दस-पंद्रह फीसदी से ऊपर अब तक नहीं बढ़ पाया है।
मृदा परीक्षण योजनाएं, अनुदान पर कृषि उपकरणों का वितरण या किसानों की मदद के लिए बने सरकारी कृषि सहायता केंद्र, ये सब भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं। अगर ऐसा नहीं है, तो बीते बीस साल में ही इन मद का सरकारी खर्च और कर्जमाफी की रकम जोड़ लें, देश का एक-एक किसान अब तक निहाल हो चुका होता। इसलिए किसान संगठन अब पार्टियों और सरकारों पर कृषि क्षेत्र की दीर्घकालिक नीति का दबाव बनाएं, तभी अन्नदाता सम्मानपूर्वक जीवन का हकदार बन पाएगा।