व्यंग्य राही की कलम से ज्यादातर भारतीय बापों की यही इच्छा रहती है कि वे इतनी कमाई करके मरे कि उनकी औलादें मजे करें। इसी के चलते बाप जिन्दगी भर मेहनत करता है, मूंजी की तरह सम्पत्ति बनाता है, कंजूस की तरह रुपया खर्चता है। प्रकांड विद्वानों ने अपनी नामाकूल औलादों को विश्वविद्यालय में शिक्षक बनवा दिया, आप चाहे तो हम लम्बी सूची प्रस्तुत कर सकते हैं। यही हाल कवियों के हैं।
सौ में से निन्यानवे कवि ऐसे हैं जिनके पुत्र अपने पिता के कवि कर्म को हिकारत से देखते हैं, लेकिन बाप के मरने के बाद उसकी कविताओं पर अपना कॉपीराइट मानते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि एक साहित्यकार अपनी रचना कमाता कहां से है समाज से। फिर उसके मरने के बाद उसकी रचनाओं पर समाज का ही हक क्यों नहीं होना चाहिए? हो सकता है लेकिन नाकारा औलादें हाथ में कानून की पिस्तौल लेकर आ जाती है।
हमारे पिता एक कहावत सुनाया करते थे- पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत को क्यों धन संचय। अगर पुुत्र योग्य हुआ तो स्वयं ही करोड़ों पैदा कर लेगा और नालायक हुआ तो अरबों की सम्पत्ति के बत्ती लगा देगा। ऐसे पुत्र बिरले ही होते हैं जो पिता की मृत्यु के बाद उनका कमाया धन समाज को दान कर देते हैं।
अजी मरने की तो छोड़ो, इस धरती पर लाखों औलादें ऐसी हैं जो जीते जी ही रुपए के लिए अपने बाप की कपाल क्रिया कर देते हैं। कुछ बेटे लातों से बाप की सेवा करते हैं तो कुछ बातों से। बेचारे बूढ़े बाप को उठते-बैठते इतने ताने मारते हैं कि घबरा कर अपनी जमा-थमा बेटों को सौंप देते हैं।
सम्पत्ति अपने नाम होने पर बेटे भी अपने पिता का ऐसा हाल करते हैं जैसे पंच परमेश्वर कहानी में जुग्गन ने अपनी बूढ़ी खाला का किया था। अच्छा हुआ जो बाबा तुलसी, नाना कबीर, काकी मीरा और चचा गालिब अपनी रचनाओं का कॉपीराइट करके नहीं गए वरना हमारे जैसे नाकारा लेखक तो रोते ही रहते।