ओपिनियन

Editorial: शर्मनाक!

देश में जैसे-जैसे लोकतंत्र सुदृढ़ होता जा रहा है वैसे-वैसे जनप्रतिनिधियों की सुविधाओं के नाम सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ रहा है।

Oct 22, 2016 / 12:39 am

हंसी भी आती है, तरस भी आता है और गुस्सा भी आता है अपने जनप्रतिनिधियों के आचरण पर। जनता की सेवा और पार्टी की विचारधारा और सिद्धांतों को आगे बढ़ाने के नाम पर राजनीति में आने वाले जनप्रतिनिधि जब जनता की बजाय अपने और अपने परिवार की चिंता में ही डूब कर रह जाएं तो गुस्सा स्वाभाविक है। 
और जब राजस्थान के बाड़मेर से आने वाले भाजपा विधायक तरुण राय कागा सरीखे विधायक 20 हजार रुपए बचाने के लिए अपने पुत्र को ही अपना निजी सहायक बना लें तो हंसी और तरस भी आ ही जाता है। सभी राजनीतिक दलों में कागा जैसे नेता मौजूद हैं जो जन सेवा की बजाय सरकारी सुविधाओं को ही तवज्जो देने लगे हैं। 
राजनीति में आने का उनका मूल मकसद भी नाम और पैसा कमाना ही रह गया है। सांसद-विधायक पहले भी होते थे लेकिन न उन्हें वाहन भत्ता मिलता था और न निजी सहायक के लिए वेतन। देश में जैसे-जैसे लोकतंत्र और सुदृढ़ होता जा रहा है वैसे-वैसे जनप्रतिनिधियों की सुविधाओं के लिए सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ता जा रहा है। 
हद तो तब हो जाती है जब सांसद-विधायक सरीखे हमारे जनप्रतिनिधि हवाई और रेल यात्रा के झूठे टिकट पेश कर पैसा उठाने से नहीं चूकते। जनप्रतिनिधियों की ये करतूतें उन पार्टी ‘आलाकमानों’ के लिए सीधी चुनौती से कम नहीं जो जनता की सेवा को पहली प्राथमिकता का ढोल पीटते नहीं थकते। 
संसदीय समितियों के दौरों के नाम पर सांसद-विधायकों के परिवार भ्रमण पर होने वाला खर्च किसी से छिपा नहीं। लेकिन सवाल ये कि इसे रोके कौन और कैसे?

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