scriptफिर टकराव की राह | editorial 30 march 2017 | Patrika News

फिर टकराव की राह

Published: Mar 30, 2017 05:02:00 pm

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यह ठीक है कि लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों के अपने अधिकार और अपनी सीमाएं हैं।

तो क्या केन्द्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय में यूं ही ठनी रहेगी? सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के अधिकार और उसके तरीके को लेकर दोनों के मध्य कई वर्षों से चल रही तकरार सुलझती नजर आई थी। लेकिन अब फिर मामला पटरी से उतरता दिख रहा है। 
ताजा-तरीन तीन मामले तो कम से कम इसी दिशा की ओर संकेत करते हैं। सबसे पहला मामला जजों की नियुक्ति का। इसमें कॉलेजियम अपनी ही सिफारिश को राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर रोकने का अधिकार, केन्द्र को देने को तैयार हो गया। लगा कि, अब सब ठीक हो गया लेकिन केन्द्र के इस आधार को लिखित में देने से मना करने पर बात फिर बिगड़ गई। 
इसके बाद केन्द्र सरकार ने पैलेट गन और लोकपाल की नियुक्ति के मामलों में जिस तरह देश की सर्वोच्च न्यायालय को ‘हद में रहने’ की हिदायतें दी हैं, उससे लगता है कि, दोनों के मध्य सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। 
यह ठीक है कि लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों के अपने अधिकार और अपनी सीमाएं हैं। अधिकार और सीमाओं का यह मामला जब लड़ाई में बदल जाता है, तब नुकसान देश की इन दोनों प्रतिष्ठित संस्थाओं का ही नहीं उस लोकतंत्र का होता है, जो इन पर टिका है! उस जनता का होता है, जिसकी सारी उम्मीदें इन पर टिकी होती हैं। 
इस खींचतान के लिए कौन कितना जिम्मेदार है, इसकी पड़ताल के लिए तो शायद एक न्यायिक आयोग की जरूरत पड़े लेकिन यह तो तय है कि केन्द्र सरकार को पारदर्शिता तो दिखानी ही पड़ेगी। यदि कॉलेजियम की सिफारिश पर न्यायाधीश बनने के कगार पर खड़े किसी व्यक्ति को वह राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा मानती है तो इसका खुलासा करने में क्यों और किससे डरती है? और यदि वह व्यक्ति जज बनने लायक नहीं है तो वकील रहने लायक क्यों है? उस पर तो ‘राष्ट्रद्रोह’ का मुकदमा चलना चाहिए? 
इसी तरह हद तय करने वालों को बार-बार हद में रहने की सलाह देना भी उचित नहीं कहा जा सकता। आज ऐसा केन्द्र कह रहा है, कल राज्य कहेंगे? फिर उस संस्था की प्रतिष्ठा का क्या होगा? और कल यही बात उधर से लौट कर केन्द्र सरकार के लिए कही गई तब क्या होगा? 
बेहतर यही है कि ऐसी बातें बंद कमरों में हों और उनका समाधान हो। अन्यथा देश की अदालतों में बढ़ रहे मुकदमों की बाढ़ बहुत जल्द ‘सुनामी’ का रूप ले लेगी। तब न्याय व्यवस्था और कानून के राज का क्या हाल होगा, भगवान ही जाने!
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