दलाई लामा को भारत आए 58 साल हो चुके हैं और इस दौरान वे अपने धर्म और अध्यात्म के प्रचार के काम में लगे हैं। अरुणाचल प्रदेश की उनकी यात्रा धार्मिक स्वतंत्रता की इस भावना के अनुरूप ही हो रही है। दलाई लामा को लेकर चीन का शक्की स्वभाव शुरू से ही रहा है जो कम आश्चर्यजनक नहीं।
चीन को न जाने क्यों हमेशा से ही यह लगता रहा है कि धर्मगुरु अलगाववादी गतिविधियों को बढ़ावा दे रहे हैं। लगता है कि लोकतंत्र का ना होना चीन को एक सीमित दायरे में कैद किए हुए है। चीन दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश तो है लेकिन देश के लोगों की भावनाओं को वहां कभी महत्व दिया जाता ही नहीं।
एक पार्टी के चंद नेताओं की सोच को स्वीकार करना चीन के लोगों की मजबूरी बनी हुई है। भारत ही नहीं, चीन कभी अमरीका तो कभी जापान और दक्षिण कोरिया के साथ उलझता रहता है। यह जानते हुए भी कि इस तरह उलझने से उसे आज तक न तो कुछ हासिल हुआ और न ही होगा।
चीन को यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि भारत अब 1962 वाला देश नहीं है और चीन की हर चाल का मुंहतोड़ जवाब देने की क्षमता रखता है। चीन पाकिस्तान के कंधे पर बंदूक रखकर भारत को डरा नहीं सकता।
आतंककारी सरगना मसूद अजहर के बचाव में उतरकर चीन ने अपनी सोच का खुलासा पहले ही कर दिया है। अमरीका ने आज फिर साफ कर दिया कि अजहर के मामले में चीन का वीटो हमें उसके खिलाफ कार्रवाई से नहीं रोक सकता है।
चीन को इसके मायने भी समझ लेने चाहिए। हर देश को अपने फायदे के लिए कूटनीतिक चाल चलने का अधिकार है लेकिन मुद्दा कूटनीति से जुड़ा भी तो होना चाहिए। दलाई लामा एक आध्यात्मिक धर्मगुरु हैं जिनकी कभी राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं रही।
चीन अगर चाहता है कि उसके अंदरुनी मामलों में कोई दखल नहीं दे तो उसे भी दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए। चीन को ये भी समझना चाहिए कि भारत उसका पड़ौसी है जिसे वह चाहकर भी बदल नहीं सकता।