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धुंधली तस्वीर

Published: Aug 04, 2018 01:05:35 pm

दसवीं और बारहवीं के पांच साल के परिणाम की तुलना पर राजस्थान और मध्यप्रदेश में साफ है कि जो जिले निचले पायदान पर थे, उनमें विशेष परिवर्तन नहीं आया।

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शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे विषय हैं, जो हर अभिभावक की सबसे बड़ी चिंता है, जिन पर एक आम भारतीय अपनी हैसियत के अनुसार सर्वाधिक खर्च भी करता है। लेकिन कल्याणकारी सरकारें इन दोनों विषयों से सिर्फ सीमित इत्तेफाक रखती हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो साल-दर-साल हमारे सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों की ऐसी दुर्दशा क्यों होती?
राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सरकारी स्कूलों में शिक्षा की स्थिति की पड़ताल में गंभीर तथ्य सामने आए हैं। ऐसा भी नहीं कि ये स्थितियां अचानक पैदा हुई हैं। सरकार किसी भी दल की हो, उपेक्षा स्थायी रही है। दसवीं और बारहवीं के पांच साल के परिणाम की तुलना पर राजस्थान और मध्यप्रदेश में साफ है कि जो जिले निचले पायदान पर थे, उनमें विशेष परिवर्तन नहीं आया है। छत्तीसगढ़ में जरूर, माओवाद प्रभावित सुकमा जिले की स्थिति पांच साल में काफी सुधरी है।
दूसरी ओर, सरकारें भले गांव-गांव बिजली पहुंचाने के दावे करें, लेकिन अकेले राजस्थान के 90 फीसदी प्राथमिक स्कूलों में बिजली नहीं है। मध्यप्रदेश में यह आंकड़ा 73 फीसदी है और छत्तीसगढ़ में बिना बिजली वाले स्कूलों की संख्या दस हजार से अधिक है। शिक्षकों की कमी तीनों राज्यों में गंभीर स्थिति में है। स्कूल भवनों का अभाव, शौचालयों में पानी और सफाई का संकट, तीनों राज्यों में समान परेशानी है। यानी 135 करोड़ की आबादी वाले जिस देश की सबसे ज्यादा आबादी इन सरकारी स्कूलों के भरोसे है, हम वहां कैसी नींव तैयार कर रहे हैं।
जिस दौर में बच्चे डिजिटल लर्निंग की ओर बढ़ रहे हों, वहां बहुसंख्यक आबादी बिना बिजली वाले स्कूलों में पढ़ रही है। गुणवत्ता की हालत भी किसी से छिपी नहीं। सरकारें, अफसर, सब जैसे ये मानकर बैठे हैं कि जिसे अपने बच्चों के भविष्य की ज्यादा चिंता होगी, वह उन्हें निजी स्कूल में पढ़ा लेगा! बेशर्म सरकारें यह समझने की जहमत भी नहीं उठातीं कि इसी देश में केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय भी सरकारी व्यवस्था से ही संचालित हो रहे हैं। दिल्ली सरकार के अधीन सरकारी स्कूलों की कायापलट के भी उदाहरण हैं, लेकिन इनसे सीख लेने को न कांग्रेस तैयार नजर आती है और न ही भाजपा।
दरअसल, शिक्षा चुनावी मुद्दा बनती ही नहीं। दोनों पार्टियां तमाम गैर-जरूरी मसलों पर एक-दूसरे से भिड़ती नजर आती हैं, लेकिन ऐसे उदाहरण नहीं हैं, जब इन दोनों में से कोई दल सरकारी शिक्षा व्यवस्था को निजी से बेहतर बनाने की चुनौती देकर जनता का दिल जीतने की पहल करे। हालात बदलने की उम्मीद आंकड़ों से भी नजर आती है, सवाल रफ्तार का है। सरकारी स्कूलों के शिक्षक प्रशिक्षित हैं, लेकिन उनकी जवाबदेही का सिस्टम नहीं। राजस्थान में परिणाम को शिक्षक की परफॉर्मेंस से जोडऩे से स्थिति थोड़ी सुधरी है, पर बजट, सुविधाएं और अन्य उपायों की कमी से स्कूली शिक्षा का पिछड़ापन दूर नहीं हो रहा। हालांकि यह भी तय है कि जिस दिन जनता ने स्कूली शिक्षा को चुनावी मुद्दा बना लिया, सडक़ों की तरह सरकारी स्कूलों की सूरत भी सुधर जाएगी।
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