एक जमाना था जब देश के किसी भी सरकारी विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना सौभाग्य का विषय माना जाता था।
एक जमाना था जब देश के किसी भी सरकारी विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना सौभाग्य का विषय माना जाता था। इसे पाने के लिए किसी भी विद्यार्थी का प्रथम ही नहीं द्वितीय श्रेणी में पास होना भी पर्याप्त होता था। वक्त के साथ यह सूरत बदलती जा रही है। उनमें प्रवेश पाना सौभाग्य तो आज भी है लेकिन उसके लिए द्वितीय की तो बात करना ही बेकार है, अब तो प्रथम श्रेणी भी कोई मायने नहीं रखती।
अब तो 100 में से 100 नम्बर चाहिए। थोड़ा कम करना हो तो 98 मान लो। विज्ञान और वाणिज्य में तो इससे कम पर कहीं कोई पूछने वाला नहीं है। कला संकाय के विषय लेने हों तो कहीं 95 प्रतिशत पर बात हो सकती है लेकिन अर्थशास्त्र जैसे विषयों में वहां भी कोई गारंटी नहीं है। यह हालत किसी एक विश्वविद्यालय की नहीं है।
दिल्ली विवि से लेकर राजस्थान विवि जयपुर और बरकतउल्लाह विवि भोपाल तक सभी का एक-सा हाल है। प्रश्न बड़ा यह है कि बच्चे आखिर कितना पढ़ें? बातें तो सर्वांगीण विकास की करते हैं पर प्रतिस्पद्र्धा इतनी कठिन कर देते हैं कि उसके पास शिक्षा के अलावा अन्य किसी क्षेत्र के लिए कोई समय ही नहीं होता। यह हाल आज है तो इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाला समय और अधिक मुश्किलों का नहीं होगा? आखिर इस स्थिति को कौन सुधारेगा? क्या नियोजित विकास की बात करने वाली सरकारों का यह जिम्मा नहीं है कि जो भी बच्चा उच्च शिक्षा पाना चाहे उसको प्रवेश मिले।
फिर चाहे जो उपाय करने हों किए जाएं क्योंकि निजी कॉलेज या विश्वविद्यालयों की फीस भर पाना हर विद्यार्थी अथवा उसके अभिभावकों के लिए संभव नहीं है। और कुछ नहीं तो सीटें बढ़ाकर, केन्द्रीय और राज्यों के शिक्षा बोर्डों में अंक देने में प्रतिस्पद्र्धा का माहौल समाप्त कर और आवश्यकता हो तो नये विश्वविद्यालय खोलकर अथवा फीस का एक राष्ट्रीय ढांचा तय कर इस दुर्भाग्यपूर्ण समस्या का समाधान किया जाना चाहिए। जब हम अनिवार्य शिक्षा की बात करते हैं तो यह भी शासन का जिम्मा है कि वह जब तक पढऩा चाहे, उसे प्रवेश की गारंटी दें। कम से कम प्रथम श्रेणी वालों को तो इस तनाव से मुक्त करें।