मुस्लिम औरतों के पिछडऩे की वजह इस्लाम धर्म में ढूंढऩे की कोशिश की जाती रही है। इस्लाम में औरतों को शैक्षिक व सामाजिक सभी अधिकार दिये हैं। साफ कहा है कि तालीम के लिए चीन जाना पड़े तो जाओ, पर इल्म हासिल करो।
इसके उलट आज भी हकीकत यह है कि लड़कियों को घर से बाहर तक नहीं जाने दिया जाता है। समाज की मानसिकता ऐसी बनी हुई है कि किशोरावस्था के बाद तो लड़कियों को बाहर निकलने ही नहीं देना है। इस उम्र तक जितनी शिक्षा हो पाती है करो, कम उम्र में ही शादी कर उसे बहू बना दिया जाता है।
कम उम्र में शादी का दुष्परिणाम है कि उन्हें न तो शिक्षा प्राप्त हो पाती है और ना अपनी प्रतिभा या कौशल के विकास के अवसर प्राप्त हो पाते हैं। कम उम्र में बच्चे होना और बदकिस्मती से पति बेरोजगार निकल जाए तो परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी भी उसी के कंधों पर आ पड़ती है।
यह विडम्बना ही है कि जब शिक्षा की, सही मार्गदर्शन की, स्वयं के कौशल की आवश्यकता है उस उम्र में वह परिवार का बोझ ढो रही होती है। वह इतनी कुंठित हो जाती है, भावनात्मक रूप से टूट जाती है कि स्वयं के लिए सोचने की शक्ति शून्य हो जाती है। समाज या परिवार भी तो उसके साथ न्याय नहीं करता। उसके त्याग, सेवा व समर्पण को नजरअंदाज कर देता है।
अधिकतर परिवारों में यही होता आया है। कहां खो गई परिवार की मां-बहू-बेटियों के प्रति मानवीय संवेदनाएं? इस्लाम धर्म कहता है, अल्लाह के घर उन मां-बाप के गुनाहों की बख्शीश नहीं होगी जिन्होंने औलाद को तालीम से महरूम रखा हो और लड़का-लड़की की परवरिश में भेदभाव किया हो।
मुस्लिम समाज में कन्या भ्रूण हत्या जैसी समस्या भले ही न हो परंतु कन्याओं के अधिकार या सम्मान देने जैसी स्थिति भी तो नजर नहीं आती। समय-समय पर सरकारी आंकड़े इनकी शैक्षिक स्थिति को बयां करते हैं। परदे की आड़ लेकर लड़कियों की शिक्षा को घरेलू शिक्षा तक सीमित कर देना कहां तक सही है?
पैगम्बर हजरत के समय औरतें जंग के मैदान तक सहभागी थी। तो अब इतना प्रतबंधित क्यों कर दिया कि आवश्यक शिक्षा भी जरूरी नहीं समझा जाता है। शिशु की प्रथम पाठशाला मां होती है वही मां जब अनपढ़ होगी तो आने वाली पीढ़ी को विरासत में क्या देगी।
मुस्लिम औरतों के पिछड़ेपन के कारण तलाशने के साथ इनके समाधान की दिशा में भी काम की जरूरत है।