सन् 1976से पूर्व शिक्षा पूर्ण रूप से राज्यों का उत्तरदायित्व था। संविधान द्वारा 1976 में किए गए जिस संशोधन से शिक्षा को समवर्ती सूची में डाला गया, उस के दूरगामी परिणाम हुए। आधारभूत, वित्तीय एवं प्रशासनिक उपायों को राज्यों एवं केंद्र सरकार के बीच नई जिम्मेदारियों को बांटने की आवश्यकता हुई। जहां एक ओर शिक्षा के क्षेत्र में राज्यों की भूमिका एवं उनके उत्तरदायित्व में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ, वहीं केंद्र सरकार ने शिक्षा के राष्ट्रीय एवं एकीकृत स्वरूप को सुदृढ़ करने का गुरूतर भार भी स्वीकारा। इसके अंतर्गत सभी स्तरों पर शिक्षकों की योग्यता एवं स्तर को बनाए रखने एवं देश की शैक्षिक जरूरतों का आकलन एवं रखरखाव शामिल है। सर्वप्रथम राजीव गांधी ने राष्ट्रीय शिक्षानीति बना कर यह काम आरम्भ किया गया । बाद में लगभग सभी केन्द्रीय सरकारों ने कम ज्यादा यह क्म जारी रखा । लेकिन मोदी सरकार ने दूरगामी प्रभाव वाली राष्ट्रीय शिक्षानीति का अनुमोदन करके ऐसी व्यवस्था करदी है जहाँ राज्यों के पास करने को कुछ शेष नहीं रहेगा ।
एक प्रकार से यह राज्यों की स्वायत्तता पर अंकुश है और केंद्र सरकार द्वारा अपनी हस्तक्षेपकारी सत्ता का विकास करना है । इसे धीरे धीरे शिक्षा की समग्र व्यवस्था को केंद्रीय सत्ता के दायरे में शामिल करना कहा जाएगा ।यद्यपि केंद्र द्वारा यह कार्य बहुत पहले कांग्रेस सरकारों के समय ही आरंभ कर दिया गया था । केन्द्र सरकार के निर्णय यूं तो सभी मानते रहे हैं लेकिन कांग्रेस शासित राज्यों ने तो बहुत पहले ही केंद्र के निर्देशों की पालना को प्राथमिकता दी थी।
दो उदाहरणों से बात अच्छी तरह समझी जा सकती है । पहला सीबीएसई का ब्रांड एजुकेशन बनना और दूसरा अंग्रेजी का वर्चस्व स्थापित होना। यह दोनों ही काम केंद्र सरकार के दिशानिर्देशों पर ही आगे बढ़े हैं । इसका दूसरा अर्थ हुआ सीबीएसई की तर्ज पर देशभर में कोई भी बोर्ड और कोई भी राज्य सरकार अपना शैक्षिक गुणवत्ता पूर्ण ढांचा विकसित नहीं कर पाए । इस प्रकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के नाम पर पूरे देश में अभिभावकों में सीबीएससी के प्रति गहरा लगाव पैदा हो गया । लोगों को लगता है कि सीबीएससी के स्कूल में यदि उनका बच्चा पढ़ गया तो उसका मानसिक और बौद्धिक विकास बेहतर हो जाएगा। संयोग से सीबीएससी द्वारा जो भारी-भरकम अंक विद्यार्थियों को दिए जाने लगे उससे छात्र-छात्राओं में इसके प्रति आकर्षण को और अधिक बढ़ा दिया । इस खेल को राज्य शिक्षा बोर्डों को समझने में बहुत समय लगा और जब तक वे इस मैदान में उतरते तब तक बहुत देर हो चुकी थी ।
इसी प्रकार अंग्रेजी के मोह ने भी सीबीएससी को बहुत लोकप्रिय बनाया। केंद्र सरकार मौजूदा निर्णय के द्वारा शिक्षण संस्थाओं की मान्यता, नियमितता, फीस का निर्धारण, पाठ्यक्रमों की गतिविधियां आदि अनेक फैसले अपने हाथ में ले लिए हैं । जिनसे स्पष्ट रूप से राज्य सरकारों के हाथ बंध गए हैं और केंद्र सरकार खुलकर शिक्षा में अपने निर्णय को लागू करने की स्थिति में आ गयी है । दिखने में यह सामान्य बात दिखाई देती है लेकिन वास्तविकता यह है कि यह व्यवस्था संघीय ढांचे के और संविधान के मूल स्वरूप के विरुद्ध है । हम अपने सारे देश में एकीकृत केंद्रीय शिक्षा व्यवस्था के द्वारा शिक्षा का संचालन क्यों करना चाहते हैं दूसरे अन्य प्रभावों का तो पता नहीं परन्तु इस एकीकृत , केन्द्रीय शिक्षा व्यवस्था की सबसे पहली चोट स्थानीय विविधता पर पड़ती है।
लेकिन केंद्र सरकार ने इसे लागू कर दिया है और आप देख लीजिए अधिकांश भाजपा राज्यों में बिना किसी प्रतिरोध के इसे स्वीकार कर लिया जाएगा और विपक्ष की आवाज आज बची ही कहाँ है ।
समवर्ती शिक्षा में केंद्र सरकार द्वारा किया जाने वाला हस्तक्षेप प्रगतिगामी हो सकता है । लेकिन इसमें स्थानीयता की महक गायब है । 139 करोड़ की आबादी वाले देश में विविध विशेषताओं और खूबियों को आप एक राष्ट्रीय नीति में बांध ही नहीं सकते हैं । वह भी शिक्षा जैसे क्षेत्र में क्योंकि शिक्षा का क्षेत्र बहुत अधिक लचीला होना आवश्यक है। हमारे देश में सनातन काल में जो वैदिक संस्कृति का विकास हुआ है उसका भी मूल कारण स्थानीय स्वरूप और सृजन और प्रयोग की स्थानीय स्तर पर खुली छूट थी । दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद राज्यों को जब शिक्षा का अधिकार मिला था तब उनके पास न तो संसाधन थे और ना ही व्यापक सोच और न ही विकसित दृष्टिकोण । आज हालात बदले हैं अनेक ऐसे राज्य हैं जो शिक्षा में नवाचार और प्रयोगों द्वारा देश को दिशा दे रहे हैं । लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति के नाम पर सभी को एक सूत्र में बांधने का कार्य इन सब पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा । राष्ट्र चाहता है कि यह एकता विविधता के साथ ही सुंदर लगे हमारी आदत भी और हमारे संस्कार भी इसी के गवाह हैं ।