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बचत की परंपरा पर प्रश्नचिह्न और ध्वस्त होती संस्कृति

Published: Dec 04, 2016 01:29:00 pm

क्या किसी नेता को यह पता है कि संस्कृति और सभ्यता का अंतर क्या है? देश में परंपराओं का विकास सैकड़ों नहीं हजारों सालों में होता है और वही देश की पहचान और विकास की नींव बनती है।

एक समय था जब मैं और मेरे पड़ोस की पांच नंबर वाली चाचीजी हाथी बाबू के बाग से छोटी चौपड़ तक रोजाना सब्जी खरीदने पैदल जाया करते थे। मैंने एक दिन पूछ लिया कि हम सिटी बस से क्यों नहीं आते। 
उनका उत्तर था कि सिटी बस से आने और जाने के दस-दस पैसे लगते हैं। उन बीस पैसों को बचाने के लिए ही तो हम यहां आते हैं। वर्ना तो जयपुर के पोलोविक्ट्री सिनेमा क्षेत्र से ही खरीद लेते।
बचत की यही परंपरा बच्चों को दी जाने वाली मिट्टी की गुल्लक के साथ बीज रूप में देखी जा सकती है। बच्चों को आकर्षित करने के लिए भी कई बैंकों ने नए-नए डिजाइनों में गुल्लकें बांटी थीं। आज तो वे आदमी से कटकर धन से जुड़ गए। जबकि संचय तो अपने पुण्यों का व्यक्ति अगले जन्म के लिए भी करता है। असली धन तो पुण्य है।
आज चाचीजी के उस उत्तर पर मैं देश की महिला शक्ति को बार-बार नमन करता हूं। कैसे उन्होंने एक-एक परिवार को बचत के लिए संस्कारित किया, विकसित किया! बच्चों को पढ़ा-लिखा कर तैयार किया! 
जिन्दगीभर पति की जेब से चोरी करके भी कभी स्वयं के लिए दो रुपए नहीं खर्चे। उनके इस त्याग की चर्चा इतिहास के किसी पन्ने पर पढ़ने को नहीं मिलती। आज जब हमारी केंद्र सरकार कैशलेस व्यवस्था की बात करती है तब इस निर्णय में देश की यह बचत करने की परंपरा ध्वस्त होती दिखाई पड़ रही है। 
क्या किसी नेता को यह पता है कि संस्कृति और सभ्यता का अंतर क्या है? देश में परंपराओं का विकास सैकड़ों नहीं हजारों सालों में होता है और वही देश की पहचान और विकास की नींव बनती है। 
पाठकों को याद होगा कि जब 2008 में वैश्विक आर्थिक मंदी का दौर आया था, अमरीका जैसी महाशक्तियों ने घुटने टेक दिए थे। तब उस झंझावात में भी हमारी आर्थिक स्थिति संयत थी। 

पूरे विश्व ने इस बात पर भारत को बधाई दी थी कि हमारी बचत परंपरा बहुत गहरी है। आज हम दोनों हाथों में कुल्हाड़ी लेकर उसी परंपरा को निर्मूल करने पर तुले हुए हैं। 
आधुनिक शिक्षा ने विकास की परिभाषाएं बदल डालीं। स्त्री-पुरुष को अन्य प्राणियों की तरह शरीर मात्र मानकर, अन्य विकसित देशों की नकल पर चल पड़े। उन विकसित देशों में अध्यात्म की संस्थाओं (शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा) का स्वरूप बिखरा हुआ है। जिसे हमारे शिक्षित समुदाय ने भी अपनाना शुरू कर दिया है। 
देश की पिछली कांग्रेस सरकार के मानव संसाधन मंत्री और ख्यातनाम वकील कपिल सिब्बल ने जिन नीतियों को हवा देने का प्रयास किया, वे सारी हमारी नैतिक मूल्यों की परंपराओं को ध्वस्त करने ही वाली थीं। लेकिन वे इसे अपनी उपलब्धि मानकर सदन में बार-बार गरजते रहे। 
उदाहरण के लिए समलैंगिकता को कानूनी जामा पहनाने की कोशिशें। उदाहरण के लिए 16 वर्ष की लड़की को स्वेच्छा से किसी भी पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाने की छूट लेकिन विवाह की उम्र 18 वर्ष!
इस देश में स्त्री और पुरुष, शिव और शक्ति के रूप में एक पवित्र संस्था हैं। वर्तमान सरकार का नोटबंदी का निर्णय भी मूलत: देश की एक बहुमूल्य परंपरा को ध्वस्त ही करने जा रहा है। पैसा लोगों को विरासत में मिल सकता है। किन्तु उसका मूल्य मिट्टी से अधिक नहीं माना जा सकता। 
हमारे यहां परंपराओं को ही मूल्यवान विरासत माना जाता है। क्या किसी अफसर/राजनेता को निर्णय करने से पहले यह अनुभव था कि इस निर्णय का देश की पचास प्रतिशत महिला आबादी की कार्यप्रणाली, घर के विकास में उसकी भूमिका तथा जीवन के प्रति उसकी एकात्म की अवधारणा पर क्या फर्क पड़ेगा? उनके लिए तो परंपराओं का कोई मूल्य ही नहीं है। न ही उनमें किसी प्रकार की कोई संवेदनशीलता दिखाई पड़ती है। क्योंकि वे चिंतन से अंग्रेजीदां हैं। 
भारतीय परंपराओं से उनका कोई लेना-देना नहीं है। जैसी सरकार आती है, वे वैसी ही नीतियां बनाने में लग जाते हैं। देश के प्रति उनकी निजी प्रतिबद्धता देखने को नहीं मिलती। उनका विकासवाद धन, ग्लैमर और प्रभावशाली वातावरण तक सीमित है। तब उनको कैसे पता चलेगा कि आपातकाल के लिए तो चींटियां भी बचत करती हैं। इसमें बाधा डालना क्या चींटियों के अस्तित्व का अपमान नहीं होगा? 
आप किसी भी परिवार के इतिहास को अंदर तक पढ़ने का अभ्यास करें तब दिखाई पड़ जाएगा कि कैसे महिलाओं की बचत ने बच्चों को पढ़ाया, घर को ऊपर उठाया और बीमारी-दुर्घटना जैसी आपात परिस्थितियों में कैसी महत्ती भूमिका निभाई। इन्होंने ही अपने आभूषण बेचे। 
इसी बचत के सहारे अपने ऋणों का भुगतान किया। गृहस्वामी की कमजोर स्थिति में हर स्त्री ने एक से अधिक बार अपने कंधों का सहारा दिया। आज वह अपमानित महसूस कर रही है। उसकी बरसों की बचत आज मिट्टी में मिल गई है। भ्रष्टाचारियों का तो कुछ बिगड़ा ही नहीं, किन्तु आस्थावान गृहस्थ लोगों की गाड़ी के पहिए कीचड़ में धंस कर ठहर गए। क्या वह फिर से बचत करने की सोच पाएंगे? 
सरकारी नीतियों और बैंकों ने जिन भ्रष्ट और निकम्मी कार्यप्रणालियों के प्रमाण दिए तब कौनसी महिला किस बैंक पर विश्वास करेगी। दूसरी ओर मोबाइल रखना और साक्षरता दोनों एक बात नहीं हैं।

सरकार मानती है कि उसको तीन से चार लाख करोड़ उन खातों में मिल जाएंगे जिन पर चार प्रतिशत ब्याज देय होता है। जिसके आधार पर वह आयकर छूट की सीमा बढ़ाने की बात करती है। छोटी पूंजी वाले गृहस्थी सारा पैसा बैंक में रख कर क्या सौ रुपए की वस्तु पर एक सौ तीस रुपए खर्च करना चाहेंगे? तब इस योजना की सफलता पर स्वत: ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। 
बड़े उद्योगपतियों के साथ क्या होता है, आम आदमी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। न ही कोई सरकार अफसरों-नेताओं से काला धन वसूल कर पाएगी। भले छुट्भैयाओं पर जरूर कुछ बेनामी संपत्ति के आधार पर छोटी-मोटी कार्रवाई हो जाए। संभवत: सरकार भी 8 नवंबर से आज तक स्वयं की योजना को सफल नहीं मान रही। इसलिए नित नए आदेश जारी कर रही है। 
इन प्रयासों से देश की सभ्यता तो बदनाम होगी ही, संस्कृति की जड़ें भी हिल जाएंगी। आदमी का मूल्य समय के साथ गिरता ही चला जाएगा। आधार कार्ड की अनिवार्यता करके सरकार ने अपनी यह प्रतिबद्धता भी जाहिर कर दी है कि वह छोटे से छोटे परिवार में भी न धन देखना चाहती है, न सोना। तब बचत की परंपरा होलिका की तरह धूं-धूं करके जल जाएगी।

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