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Patrika Opinion: नाकाफी हैं खेलों को बढ़ावा देने के प्रयास

Published: Aug 08, 2022 10:32:04 pm

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Patrika Desk

पदक तालिका में हम चौथे स्थान पर ठहरे। क्या इस प्रदर्शन को संतोषजनक माना जा सकता है? पिछले राष्ट्रमंडल खेलों में 26 स्वर्ण जीतकर हम तीसरे स्थान पर आए थे। इस बार एक पायदान नीचे खिसकना यही संकेत देता है कि खेल की दुनिया में भारत को अभी बहुत कुछ करना है।

राष्ट्रमंडल खेल 2022

राष्ट्रमंडल खेल 2022

राष्ट्रमंडल खेलों के आखिरी दिन पीवी सिंधु, लक्ष्य सेन और चिराग-सात्विक की जोड़ी ने बैडमिंटन में और शरत ने टेबल टेनिस में भारत की झोली में चार और स्वर्ण पदक डालकर खेल प्रेमियों को उत्साह से भर दिया। कुश्ती और भारोत्तोलन में भारत के खिलाडिय़ों ने अच्छा प्रदर्शन किया। पदक तालिका में हम चौथे स्थान पर ठहरे। क्या इस प्रदर्शन को संतोषजनक माना जा सकता है? पिछले राष्ट्रमंडल खेलों में 26 स्वर्ण जीतकर हम तीसरे स्थान पर आए थे। इस बार एक पायदान नीचे खिसकना यही संकेत देता है कि खेल की दुनिया में भारत को अभी बहुत कुछ करना है।
ओलंपिक और विश्व कप स्पर्धाओं की बात तो दूर, एशियाई अथवा राष्ट्रमंडल खेलों में भी हम कभी सिरमौर नहीं बन पाते। देश आजादी के 75 वर्ष पूरे करने जा रहा है। इस अवधि में हमने आर्थिक और सैन्य क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल की हैं, पर खेल जगत में खास पहचान नहीं बना पाए। संतोष की बात यह जरूर है कि इन खेलों में कई ऐसी प्रतिभाएं भी सामने आई हैं जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में रहकर पदक हासिल किए। दूसरी ओर जिनसे पदकों की उम्मीद थी वे खास उपलब्धि हासिल नहीं कर पाए। ये मानना होगा कि हॉकी और क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में हम अब भी बहुत पीछे हैं। सवाल यह भी है कि आखिर सभी स्तर की खेल स्पर्धाओं में हम अपनी चमक क्यों नहीं दिखा पाते? महज ढाई करोड़ की आबादी वाला ऑस्ट्रेलिया अगर 65 से अधिक स्वर्ण पदक जीत सकता है तो एक सौ चालीस करोड़ की आबादी वाला भारत पीछे क्यों रहता है? टोक्यो ओलम्पिक खेलों में बंटे 340 स्वर्ण पदकों में से हमारी झोली में सिर्फ एक पदक आया। इस पिछड़ेपन के लिए सरकारों को ही दोषी ठहराना ठीक नहीं होगा, हम खुद भी जिम्मेदार हैं। अधिकांश भारतीयों का सपना अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर या आइएएस बनाना होता है। हमको लगता है कि खेलकूद में समय बर्बाद करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। जरूरत इस मानसिकता को बदलने की है। खेलों में पैसा भी है और पहचान भी। सरकारों को औद्योगिक घरानों के साथ मिलकर मौजूदा खेल नीति में बदलाव लाने की कवायद करनी चाहिए।
खेलों का जिम्मा सरकारी अधिकारियों के भरोसे छोडऩे की पुरानी आदत भी बदलनी होगी। खिलाड़ियों के चयन में पारदर्शिता को और प्रभावी बनाने के साथ-साथ घरेलू खेल प्रतियोगिताओं की संख्या भी बढ़ाने की जरूरत है। खेलो इंडिया जैसे आयोजनों की दिशा में भी सक्रिय प्रयास होने चाहिए। प्रयास ईमानदारी से हों, तो ही बेहतर नतीजों की उम्मीद की जा सकती है।

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