किसी पवित्र अनुष्ठान से कम नहीं हैं नदियों को बचाने के प्रयास
Published: Sep 26, 2022 08:47:38 pm
नदियों को बचाना किसी पवित्र अनुष्ठान से कम नहीं है। इस अनुष्ठान में हर संवेदनशील व्यक्ति की जागरूक कोशिशें उन दिव्य मंत्रों की तरह हैं, जिनका उच्चारण सृष्टि को सकारात्मक ऊर्जा देता है।


किसी पवित्र अनुष्ठान से कम नहीं हैं नदियों को बचाने के प्रयास
अतुल कनक
साहित्यकार और
लेखक संसार की अधिकांश नदियों की उत्पत्ति का इतिहास मानव सभ्यता के विकास के इतिहास से प्राचीन है। यदि गंगा नदी के पृथ्वी पर अवतरण के आख्यान को छोड़ दिया जाए, तो दुनिया की किसी भी नदी के जन्मदिन के बारे में शायद ही किसी को जानकारी हो। लेकिन, हरियाणा के यमुनानगर जिले में बहने वाली 15 किलोमीटर लंबी थापना नदी के किनारे रहने वाले लोग हर साल सितंबर के अंतिम रविवार को अपनी नदी का जन्म दिन मनाते हैं। पूरे इलाके के लिए यह दिन बहुत उत्साह का होता है। बड़े स्तर पर प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है और सभी प्रतिभागी नदी को प्रदूषण सहित अन्य संकटों से बचाने का संकल्प लेते हैं।
दरअसल, जब थापना नदी प्रदूषण का शिकार होकर गंदे नाले में परिवर्तित होने लगी, तो कुछ लोगों ने इसकी सफाई का बीड़ा उठाया। उन्हें उनके काम में सफलता मिली, तो नदी जल में मछलियों की संख्या भी बढ़ गई और कुछ लोग नदी किनारे मछलियां पकडऩे आने लगे। नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान नहीं पहुंचे, इसलिए थापना किनारे बसे गांवों के उत्साही युवाओं ने नदी किनारे पहरा देना शुरू कर दिया। फिर यह सोचकर कि नदी के प्रति सभी लोगों में एक आत्मीय भाव जागना चाहिए, ग्रामीणों ने नदी का जन्म दिन मनाने का फैसला किया। ठीक उसी तरह से जिस तरह परिवार के किसी बुजुर्ग का जन्म दिन सब लोग उत्साह से मनाते हैं। यह पहल इलाके के लिए एक बड़ा अवसर बन गई। थापना नदी के जन्मोत्सव के लिए सितंबर का अंतिम रविवार इसलिए चुना गया था, क्योंकि उस दिन दुनिया भर में नदी दिवस मनाया जाता है। इसकी शुरुआत इस उद्देश्य से की गई कि लोगों में नदी के प्रति संवेदनाओं को बढ़ाया जाए। विकास के नए सोपानों को पाने की आपाधापी में सारी दुनिया में नदियां अनदेखी की पीड़ा को जी रही हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि उनके पानी में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। गंगा जैसी पवित्र नदी भी इस पीड़ा से अछूती नहीं बची है।
सवाल यह है कि नदियां यदि रूठने लगीं, तो क्या होगा? बिहार में भुतहा नामक एक छोटी सी नदी है। कुछ दशकों पहले नदी ने अचानक अपना रास्ता बदलना शुरू कर दिया। नदी दूर चली जाए, तो जीवन कठिन हो जाता है। लोगों की मुश्किलें बढ़ गईं। कहते हैं कि इसके बाद गांव वालों ने सामूहिक रूप से नदी की पूजा की, यह कहा कि उनसे कोई अपराध या अविनय हुआ हो तो उसे क्षमा करें। फिर प्रार्थना की कि नदी तू तो मां है, हम पर अपना स्नेह बनाए रख। कहते हैं कि प्रार्थना के बाद नदी फिर पुराने रास्ते पर लौट आई। गुजरात का लखपत गांव जानता है कि नदी यदि रास्ता बदले तो क्या होता है? कभी जलीय मार्ग से अपने उन्नत व्यापार के लिए दूर-दूर तक पहचाना जाने वाला यह गांव इसलिए वीरान हो गया, क्योंकि पास ही बहने वाली नदी भूकंप के कारण कुछ किलोमीटर दूर चली गई थी।
भुतहा को तो प्रार्थना के बाद दूर जाने से रोक लिया गया, लेकिन अब यदि नदियों को बचाना है तो हमें उनके संरक्षण के दायित्व को प्रार्थना की तरह स्वीकार करना होगा। देश के कई हिस्सों में लोगों ने छोटी नदियों को संरक्षित करके यह साबित कर दिया है कि यदि हम प्रतिबद्ध हों तो नदियों की शुचिता, उनकी निर्मलता को बचाया जा सकता है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा की जीवन रेखा कही जाने वाली कोसी नदी को बचाने के लिए वहां के जिला प्रशासन ने पहल की। नदी किनारे सघन वृक्षारोपण किया गया। विविध वर्गों को इस मुहिम से जोड़ा गया और नदी के पेटे में ऐसी संरचनाओं का निर्माण किया गया, जिससे भूजल स्तर कायम रखने में मदद मिले। इन कोशिशों ने रंग दिखाया। आज कोसी अपने पूरे उत्साह से बहती है। उत्तर प्रदेश की सासुर खादेरी और तमसा नदी, राजस्थान की अरारी नदी, तमिलनाडु की नागनंदी नदी, कर्नाटक की कुमुदवती नदी, केरल की वृहतपूजा नदी और पंजाब की कालीबेई नदी को ऐसे ही सामुदायिक प्रयासों से बचाया जा सका है। नदियों को बचाना किसी पवित्र अनुष्ठान से कम नहीं है। इस अनुष्ठान में हर संवेदनशील व्यक्ति की जागरूक कोशिशें उन दिव्य मंत्रों की तरह हैं, जिनका उच्चारण सृष्टि को सकारात्मक ऊर्जा देता है।