आज जबकि देश में आम चुनाव की तैयारियां चल रही हैं और राजनीतिक दल भविष्य में जो कुछ वे कर सकते हैं, उसके बारे में मतदाताओं से वायदे कर रहे हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक दल कृषि के बारे में उचित योजनाएं बनाएं और उन्हें लागू करने के बारे में मतदाताओं को बताएं। आश्चर्य तो यह है कि राजनीतिक दल कृषि के हालात सुधारने के बारे में फिलहाल कोई बात नहीं कर रहे हैं। हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि किसानों की कर्ज माफी से आगे बढ़कर वे कृषि के हालात सुधारने की योजनाएं भी अपने घोषणापत्रों में लाएंगे।
ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि देश में कृषि के हालत बिगडऩे का एक बड़ा कारण रहा है, रासायनिक खादों का अत्यधिक इस्तेमाल होना। हमने न केवल रासायनिक खाद बल्कि रासायनिक कीटनाशकों का भी जरूरत से अधिक इस्तेमाल किया है। इसका दुष्परिणाम यह रहा कि मिट्टी में उर्वरता के लिए जरूरी आवश्यक तत्वों की कमी होती चली गई।
कृषि भूमि के लिए पर्याप्त ऑर्गेनिक कॉर्बन की कमी खतरनाक स्तर पर पहुंचती जा रही है। यह 0.5 से कम होकर 0.3 से 0.4 तक रह गई। इस के कारण मिट्टी में जल संग्रहित करने की शक्ति का तेजी से क्षरण हुआ है। इसके साथ मिट्टी के उपजाउपन में भी कमी आती गई है। सर्वे इस बात को प्रमाणित कर रहे हैं कि देश के कुछ कृषि क्षेत्रों में नत्रजन, पोटाश और फॉस्फेट की कमी होती जा रही है।
वर्ष 2018 में तो देश के बहुत से कृषि क्षेत्रों में अनियमित और असमान बरसात हुई। इस वजह से मिट्टी में नमी की कमी आई है। जैसा कि मौसम विज्ञानी चेतावनी दे रहे हैं कि इस बार गर्मी और अधिक विकट होने वाली है और ऐसे में हमें भविष्य में भी पानी की कमी को झेलना पड़ सकता है। इस दौर में जरूरी है कि हम अपनी परिस्थितियों को समझें और उसके मुताबिक अपनी कृषि योजनाएं बनाएं।
हमारी भूजल उपलब्धता में निरंतर कमी आती जा रही है। देश की आजादी के समय यानी वर्ष 1947 में भूजल उपलब्धता एक हेक्टेयर में 5177 प्रति घन मीटर थी। जो लगातार घटते-घटते वर्ष 2018 तक 1250 प्रति घन मीटर के स्तर पर आ गई। यही वजह है कि देश में भूजल स्तर की औसत गहराई 150 फीट से बढ़कर 200-250 फीट तक आ गई।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है लेकिन योजनाबद्ध तरीके से हम कृषि करें तो हम इन स्थितियों से पार पा सकते हैं। मैं फिर से कहूंगा कि कृषकों को डरने और घबराने की जरा भी जरूरत नहीं है। हमें शुष्क भूमि का उचित उपयोग करना सीखना होगा। पानी और संसाधनों का किफायती और चातुर्यपूर्ण इस्तेमाल करना होगा।
जब पानी की कमी और मिट्टी में घटती उर्वरता की स्थिति बनती है तो मिट्टी की अधिक जुताई नहीं करनी होती। मिट्टी में आवश्यक खनिजों का उचित इस्तेमाल करना होता है और साथ में स्ििथति के मुताबिक फसलों की उपज करनी होती है। हमें ध्यान रखना होता है कि हमारी मिट्टी की स्थिति और जल की उपलब्धता किस स्तर की है, उसी के मुताबिक फसल तैयार करनी चाहिए।
उदाहरण के तौर पर चावल की बुवाई के लिए प्रति हेक्टेयर 120 सेंटीमीटर कॉलम वॉटर की जरूरत होती है। ऐसा होता है तो हम 2500 किलो प्रति हेक्टेयर चावल प्राप्त कर सकते हैं। इसी तरह गन्ने के लिए प्रति हेक्टेयर 360 सेंटीमीटर कॉलम वाटर की आवश्यकता होती है। गेहूं के लिए अलग-अलग स्थानों के मुताबिक 60 से 90 सेंटीमीटर वॉटर कॉलम की आवश्यकता होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि अलग-अलग स्थानों के मुताबिक गेहूं की कहीं चार तो कहीं पर छह सिंचाई करनी होती है।
हमें समझना होगा कि यदि हम पानी की कीमत एक पैसा प्रति लीटर मान लें तो एक हेक्टेयर में गेहूं की बुवाई के लिए 60 से 90 हजार रुपए का पानी इस्तेमाल करना होगा। ऐसे में जहां पानी की कमी है, वहां गेहूं की फसल कितनी लाभकारी होगी। कृषकों को यह समझना होगा। इसके अलावा पानी की कीमत हम एक पैसा प्रति लीटर मान रहे हैं जबकि शुद्ध पानी की कीमत इससे कहीं ज्यादा आती है।
पानी की यह गणित राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित देश के अन्य बहुत से इलाकों के समान हो सकती है लेकिन सभी के लिए ऐसा हो, यह जरूरी भी नहीं है। जो हालात इन इलाकों में हैं वे, हरियाणा और पंजाब के लिए नहीं हैं। इसीलिए कह रहा हूं कि समूचे देश के लिए कृषि क्षेत्र में नवाचार की जरूरत है।
हमें समझना होगा कि हमारे प्राकृतिक संसाधन कम से कम इस्तेमाल हों। इसके लिए हमें फसल चक्र बदलना पड़े तो उसे बदलना होगा। हमें कोशिश करनी होगी कि किसान उद्यमी की तरह सोचे और उसी तरह से कृषि करे। वह ऐसी उपज पैदा करने की कोशिश करे जो कम साधन में अधिक आय दिलाने वाली हो।
इसके लिए देश के किसानों को सुशिक्षित करना होगा। उनका कार्य और उद्यमिता कौशल विकिसत करना होगा। इसके अलावा उनके बीज ऐसे तैयार करने होंगे तो 110 दिन की बजाय 90 दिन में तैयार हो। विशेषतौर पर ऐसे जिन्हें पानी की कम से कम जरूरत हो और उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बेहतर हो।
कुल मिलाकर हमें अब देश की कृषि के लिए बहुत सोच-समझकर नीति बनानी होगी। निस्संदेह किसानों को कर्ज के बोझ से उबारना जरूरी है लेकिन जरूरत इस बात की भी है कि हम भविष्य में कृषि उपज के जरिए उनकी आय बढ़ा सकें।
(लेखक, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में उप महानिदेशक (कृषि शिक्षा)। एसकेएन कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर के कुलपति रह चुके हैं।)