कांग्रेस ने ईवीएम के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाते हुए चुनाव फिर से कराने की मांग की है। खास बात ये कि चुनाव आयोग ने ईवीएम मशीनों के मामले से खुद को दूर कर लिया है। आयोग का कहना है कि चुनाव के लिए उसने मशीनें नहीं दी थीं। सवाल से निकलता एक और सवाल। दिल्ली विश्वविद्यालय को ये मशीनें कहां से मिली? इन मशीनों की वैधता किसने प्रमाणित की? पारदर्शिता लाने के लिए वीवीपैट का उपयोग क्यों नहीं किया गया? चुनाव संसद का हो, विधानसभाओं का अथवा छात्रसंघ का। निष्पक्ष और पारदर्शी होना भी चाहिए और नजर भी आना चाहिए। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव होना ही पर्याप्त नहीं माना जा सकता। चुनाव की पारदर्शिता पर उठने वाले सवालों का जवाब आना चाहिए। दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन को बताना चाहिए कि उसने ये मशीनें कहां से मंगवाई? जवाब इसका भी आना चाहिए कि ईवीएम में एक पद के लिए दसवें नम्बर के बटन पर चालीस वोट कैसे पड़े? जबकि नोटा समेत कुल नौ उम्मीदवार ही मैदान में थे।
गम्भीर बात ये है कि चुनाव आयोग ने ईवीएम मशीनें नहीं दी तो दूसरी मशीनों पर कितना विश्वास किया जाए? ये कैसा संयोग था कि जब भाजपा समर्थित एबीबीपी के उम्मीदवार आगे चल रहे थे तो मशीनें ठीक चल रही थीं। लेकिन कांग्रेस समर्थित एनएसयूआइ उम्मीदवारों के आगे होते ही मशीनों में गड़बड़ी आ गई। मामला जितना गंभीर है, जांच भी उतनी गंभीरता से होनी चाहिए। इसके दोषियों को भी कड़ी सजा मिलनी चाहिए। ताकि भविष्य में ऐसाखिलवाड़ फिर न होने पाए। चुनाव आयोग पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा के चुनाव की तैयारियों में जुटा है। आयोग ईवीएम का विरोध कर रहे राजनीतिक दलों को विश्वास में लेकर उन्हें सन्तुष्ट करे। ये आसान नहीं है लेकिन देश और लोकतंत्र हित में ऐसा जरूरी है। पूरे प्रकरण से पल्ला झाड़ लेने से आयोग बरी नहीं हो जाता। उसकी अनुमति लिए बगैर कोई ईवीएम उपलब्ध करा लेता है तो इसकी जिम्मेदारी भी आयोग की बनती है।