ऐसा भी नहीं है कि बाद के सीईसी निष्पक्ष नहीं थे, पर सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की रही हो, चुनाव के दौरान सत्ताधारी दल से टकराने का माद्दा भी किसी ने नहीं दिखाया। इसलिए यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि आखिरकार सीईसी के रूप में दमदार अधिकारी की नियुक्ति क्यों नहीं की जाती है। निर्वाचन आयोग में नियुक्तियों को लेकर गाहे-बगाहे सवाल क्यों खड़े होते रहते हैं? यह बात सही है कि संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा बचाए बिना लोकतंत्र की रक्षा नहीं की जा सकती। और, इसके लिए सबसे जरूरी है इन संस्थाओं में जिम्मेदारों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी और त्रुटिहीन बनाना। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां चुनाव सुधार के प्रयास नहीं हुए। चुनाव आयोग और ऐसी ही अन्य संवैधानिक संस्थाओं में नियुक्ति प्रक्रिया में भी समय-समय पर सुधार किए जाते रहे हैं। न्यायपालिका में नियुक्ति हो या केंद्रीय जांच एजेंसी (सीबीआइ) जैसी संस्थाओं में, प्रक्रियागत खामियां कहीं सामने आएं तो सुधार के प्रयास जारी रहने चाहिए। अदालत ने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया भी समय के साथ बदली है और इसमें आगे भी बदलाव संभव है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर सरकार के अपने तर्क हैं। उसका कहना है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में अदालत को दखल नहीं देना चाहिए।
लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तम्भ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपना काम ठीक से करें इसके लिए ‘चेक एंड बैलेंस’ की व्यवस्था जरूरी है। वह इसलिए भी कि इनमें से कोई भी ऐसा काम नहीं कर पाए जो संविधान की भावना और लोकतांत्रिक व्यवस्था के विपरीत हो। बहरहाल, इस मामले में संविधान पीठ की सुनवाई पूरी हो गई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जो भी फैसला आएगा, वह देश में लोकतंत्र को मजबूत करने वाला साबित होगा।