राजनीतिक दलों की सामंती सोच लोकतंत्र को लील गई। जनता कमाती है, लोकतंत्र के नाम पर दोनों पाए खा रहे हैं। वेतन-भत्तों में राजस्व कम पड़ जाता है। विकास कार्य करते हैं उधार लेकर, ब्याज सिर लेकर और कमीशन खाकर। ऊपर से भ्रष्टाचार-कोई सरकारी कार्य बिना रिश्वत नहीं होता। जनता ठगी सी देख रही है, अपने बेरोजगार बच्चों को, मरते किसानों और पशुधन को। बड़े उद्योग विदेशी निवेश और मित्र मण्डली के हाथ, मध्यम उद्योग अव्यावहारिक आर्थिक नीतियों और अफसरों की मनमानी की मार में डूबे। अब खुदरा व्यापारी वालमार्ट और ऑन-लाइन शॉपिंग की भेंट चढ़े। आज-पिछले सत्तर सालों से-हम कहने को तो स्वतंत्र हैं फिर भी परोक्ष रूप से परतंत्र होने लगे हैं। निजी विकास को छोडक़र, धर्म के नाम पर भगवान भरोसे छोड़ बैठे हैं देश को।
यही वर्तमान चुनावों का मौन है। धर्म से पेट नहीं भरता। राजा आज प्रजा की सुनवाई नहीं करता। विपक्ष भी मौन है, सुप्त है। अपना अस्तित्त्व खो चुका है। उसे लगता है कि आज फिर एक अवसर आया है। कपड़े झाडक़र फिर खड़ा होने के प्रयास कर रहा है। सत्तासीन होते ही भाजपा ने देश को विपक्षमुक्त करने की घोषणा कर डाली। थी। अत: आज अकेले ही-जनता के सामने चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस सदा से राज करती रही है। उसे संघर्ष करना आता ही नहीं है। राजे-रजवाड़े जनता के साथ संघर्ष करेंगे क्या, जनता के लिए? आज भाजपा भी इसी परिभाषा में शामिल हो गई है।
लोकतंत्र में चुनाव कम से कम दो दलों के बीच होता है। यहां भी मुख्य रूप से कांग्र्रेस-भाजपा के बीच होता रहा है। जनता किसी एक का चुनाव करती रही है। इस बार सन्नाटा है। कोई भी प्रदेश हो, अभी तो एक ही पार्टी चुनाव लड़ रही है-सत्तासीन पार्टी। विपक्ष तो पूरे कार्यकाल में नदारद रहा है। जनता का कहीं प्रतिनिधित्व होता ही नहीं। सरकार या सत्तापक्ष की मनमानी झेलना जनता की मजबूरी बन चुकी थी। चुनाव आज एक दलीय रह गया। तब कैसा चुनाव? इसका एक ही अर्थ है-जनता और व्यवस्था (लोक और तंत्र) आमने-सामने हैं। यही वह चौराहा है, जहां से युवा पीढ़ी को दहाड़ मारनी है।
पिछले ७० सालों से हम धर्म और जाति के नाम पर ही वोट देते आए हैं। किसका भला हुआ! सभी समाज वहीं के वहीं हैं। हर जाति-धर्म के कुछ परिवार नए रजवाड़े बनकर खड़े हो गए। आम आदमी उन पर आश्रित हो गया। हम स्वतंत्र कहां हुए? बल्कि नए रजवाड़े भी अब तो गुण्डों-अपराधियों को टिकट देकर मतदाता का अपमान करने लगे हैं। धन और शराब के बदले वोट खरीदना जातियों के लिए गर्व की बात है क्या? लोकतंत्र व्यापार बन गया। हम अपने ही जनप्रतिनिधियों के हाथों सुरक्षित नहीं हैं, लुट रहे हैं। कब तक चलेगा यह, कौन रोकेगा इस परतंत्रता के अभियान को? जो प्रभावित होगा, जो अपना भविष्य खुद बनाना चाहेगा। आज एक अवसर है इस स्थिति पर पुनर्विचार करने के लिए। भविष्य बूढ़े-ठाड़ों पर नहीं टिकता। जवानी ही पहचान बनती है भविष्य की।
हम देख रहे हैं कि पूरा चुनाव अभियान आलोचना-प्रधान है। सबकी औकात भी इतनी ही है। लीडरशिप नदारद है। अत: नई पीढ़ी को वोट भी मंथन करने के बाद देना है और देश को नेतृत्व देने के लिए संकल्प भी करना है। खण्ड-खण्ड होते देश को अखण्ड रखने का भी संकल्प करना है। सोचो, हम भी विकास में ऊपर तक पहुंच सकते थे, नहीं पहुंच पाए। हम जाति और धर्म की बेडिय़ों को नहीं तोड़ पाए। हमारी शिक्षा ने हमें सक्षम नहीं बनाया। इसीलिए हमारे अस्तित्त्व का दोहन हो रहा है। आगे भी होता रहेगा, यदि हमने स्वयं को स्वतंत्र कर लेने का बीड़ा नहीं उठाया। पुरानी पीढ़ी को भी अपने दर्द में भागीदार करना पड़ेगा। नई पीढ़ी की अंगुली भी पकडक़र रखनी होगी। सब को एक ही लक्ष्य पर मोहर लगानी है।
व्यक्ति स्वयं की सोचकर बड़ा नहीं हो सकता। देश के लिए स्वयं का मोह छोडऩा ही व्यक्ति और समाज को बड़ा बनाता है। हम देश के साथ ही बड़े-छोटे हो सकते हैं। हां, भ्रष्टाचार और अपराधों के सहारे अलग से भी कागज के टुकड़े बटोर सकते हैं। बच्चों के तो साख ही काम आती है, जो आज की राजनीति में तो नहीं बचती। देश में अलग से जो बड़े होते जा रहे हैं, वे देश छोड़ते जा रहे हैं। वे देश के काम आते ही नहीं। नई पीढ़ी को फिर से आजादी के लिए अभियान छेडऩा है। स्वयं बीज बनकर फल आने वाली पीढ़ी के लिए छोडऩा है। जो अपने फल खुद खाना चाहता है, याद रखिए, वह कभी भी पेड़ नहीं बन सकता। समय के साथ नष्ट हो जाएगा। युवा वर्ग को पेड़ बनकर देश को हरा-भरा और पुष्पित-पल्लवित करना है। नहीं तो आपके बच्चों को उतना भी नहीं मिलेगा जितना आपके जीवन को मिल पाया है। कहते हैं कि, यदि छुरी सोने की भी हो तो पेट में नहीं मारी जाती।