राजस्थान जैसे शांत प्रदेश में नेताओं का यह आचरण निश्चित ही बेरोजगारों के लिए पीड़ादायक है। एक दूसरे की बात को सुनने का माद्दा अब राजनेताओं में कम ही दिखाई देता है। जब माननियों के वेतन भत्तों की बारी आती है तो सदन के सब काम बड़ी आसानी से हो जाते हैं पर जब सवाल रोजगारों का आता है तो सिर्फ हंगामा होता है। पक्ष और विपक्ष दोनों मिलकर अपना हित साध लेते हैं पर डिग्रियों की माला पहने सडक़ों पर मारे-मारे रोजगार के लिए भटक रहे नौजवानों पर इन्हें तरस नहीं आता है। विधानसभा की कार्यवाही, प्रश्नकाल, हंगामा, सीबीआइ की जांच की मांग इन सब सियासती दांव पेचों से उनका कोई वास्ता नहीं है। उन्हें सिर्फ रोजगार का रोडमैप चाहिए, जो नेताओं के पास शायद नहीं है। बेरोजगारी के लिए राजस्थान में अकेली कांग्रेस जिमेदार नहीं है।
पिछले पचास सालों में भाजपा भी बीस साल सत्ता में रही जो कि कोई कम अवधि नहीं है। वह भी युवाओं को रोजगार की झप्पी देने की कोई विशेष उपलब्धि अपने खाते में नहीं रखती है। अगर सरकार दस दिन में भर्ती निकालकर छह माह नियुक्तियां कर दें तो यह एक बहुत बड़ी सौगात होगी। खुद मुयमंत्री अशोक गहलोत ने सदन में यह बात कही है। अब देखना यह है कि उनकी सरकार इसको अंजाम दे पाती है या नही। मंशा अच्छी होने भर से काम नहीं चलने वाला है। आवश्यकता है फुलप्रूफ सिस्टम बनाने की । कहीं किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रहे। स्ट्रांग रूम स्ट्रांग रहे। परीक्षा पारदर्शिता के साथ निष्पक्ष हो।
सरकार को इसका पूरा रोडमैप शीघ्र अति शीघ्र बनाकर इसको अमली जमा पहनाने की कवायद शुरू कर देनी चाहिए। बेरोजगारी भयावह स्थिति तक पहुंच चुकी है। समय रहते हुए ध्यान नहीं दिया तो परिणाम गंभीर होंगे। बेरोजगार नौजवानों के लिए यह महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है कि रीट की जांच कौनसी एजेंसी करे। महत्वपूर्ण यह कि उन्हें रोजगार मिले। पर इसका अर्थ यह भी नहीं कि जांच के नाम पर सिर्फ लीपापोती होकर रह जाए। जांच एजेंंसियां को प्रभावों से मुक्त होकर अपने काम को अंजाम देना चाहिए। राष्ट्र के मजबूत भविष्य के भावी शिक्षकों की नियुक्तियों में किसी प्रकार की धांधली नहीं होनी चाहिए। यह दायित्व सबका है।