निश्चित रूप से राजनेता किसी दूसरी दुनिया के जीव नहीं हैं। एक आम आदमी की तरह मोह-माया जैसे गुण-अवगुण उन्हें भी प्रभावित करते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे इन्हीं गुणों-अवगुणों के माध्यम से पनपी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए ही अपना जीवन समर्पित कर दें। जब राजनेता जनता से जुड़ने का दावा करते हैं तो जनता की भावनाओं का ख्याल भी उन्हें ही रखना होगा। सवाल यह है कि इस दौर में राजनेताओं द्वारा अपराधियों के माध्यम से अपनी इच्छाओं पर खरा उतरने की कोशिश के बरक्स जनता की अपेक्षाओ पर खरा उतरने की कोशिश क्यों नहीं की जाती ?
इसमें कोई शक नहीं है कि आजादी के बाद हमारे देश की राजनीति लगातार मूल्यविहीन होती चली गई। अभी भी राजनीति में मूल्यविहीनता का सिलसिला लगातार जारी है। यह सही है कि सभी राजनेताओं को एक ही पंक्ति में खड़ा नहीं किया जा सकता लेकिन इस स्थिति के बावजूद राजनीति का मौजूदा स्वरूप आशा की कोई किरण नहीं दिखाता। शायद यह इस दौर की राजनीति का खोखला आदर्शवाद ही है कि अनेक स्तरों पर राजनीतिक शुचिता की कुछ कोशिशों के बावजूद विकास दुबे के मामले में उत्तर प्रदेश के कुछ राजनेता कठघरे में खड़े हुए दिखाई दिए।
कुछ राजनेताओं के ऐसे क्रियाकलाप स्पष्ट रूप से यह संकेत दे रहे हैं कि अपने स्वार्थ के लिए हमारे जनप्रतिनिधि किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। उनके लिए निजी स्वार्थ ही सर्वोपरि है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस दौर की राजनीति में जनसेवा जैसे शब्द की क्या प्रांसगिकता है ? क्या ऐसे शब्द मात्र जनता को लुभाने के लिए ही प्रयोग में लाए जाते हैं ? दरअसल जब हमारे राजनेता वोट मांगने जनता के पास जाते हैं तो उनका निजी कुछ नहीं रह जाता। वे जनता को अपना परिवार बताने लगते हैं लेकिन इस परिवार के व्यापक सरोकारों से नहीं जुड़ पाते। सवाल यह है कि क्या हमारे राजनेताओं के निजी स्वार्थ की परिधि में जनता के व्यापक सरोकार आ पाएंगे ? निश्चित रूप से स्वार्थ शब्द में स्वयं के लाभ का भाव निहित है। यदि जनसेवा या जनकल्याण को स्वयं का लाभ मान लिया जाए तो इस सकारात्मक स्वार्थ के माध्यम से हमारे देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव हो सकता है।
सवाल यह भी है कि जो राजनेता करोड़ों रुपए लगाकर उल्टे-सीधे तरीकों से चुनाव जीतने का स्वप्न देखते हैं ,क्या वे ईमानदारी के रास्ते पर चल पाएंगे ? जाहिर है कि वे इन करोड़ों रुपयों को जनता या फिर सरकारी योजनाओं के माध्यम से ही वसूलना चाहेंगे। इस दौर में राजनीति एक ऐसा व्यवसाय बनती जा रही है जिसमें जनसेवा का मुखौटा लगाकर जनता के लिए किए गए कार्यों की जनता से ही कीमत वसूली जाती है। राजनीति की यह जो अलग धारा निकली है ,इस पर व्यवसाय के सभी नियम-कानून लागू होते हैं। इस धारा से निकली हुई बेल लगातार फल-फूल रही है।
निश्चित रूप से राजनीति में नफे-नुकसान का गणित महत्वपूर्ण होता है। राजनीति में शुरू से ही इस नफे-नुकसान रूपी गणित के प्रश्न हल किए जाते रहे हैं। चुनाव से पहले कागज पर तो यह हल निकाल लिया जाता है लेकिन राजनीति के बड़े-बडे़ सूरमा व्यावहारिक रूप से इन प्रश्नों का हल निकालने में नाकाम होते देखे गए हैं। सवाल यह है कि क्या राजनीति सिर्फ एक गणित ही है। राजनीति सिर्फ एक गणित या फिर व्यवसाय नहीं हो सकती। गणित के कुछ प्रचलित सूत्र होते हैं तो व्यवसाय में पूंजी निवेश के बाद होने वाला लाभ देखा जाता है। जबकि राजनीति के गणित में समीकरण और सूत्र बदलते रहते हैं। इसी तरह राजनीति को व्यवसाय मानने वाले लोगों को यह सोचना चाहिए कि राजनीति केवल नफे-नुकसान का खेल नहीं है। राजनीति में जनकल्याण का भाव भी निहित है।