इन सबसे दूर व सबसे बड़ी समस्या तो सामान्य शिष्टाचार व सभ्यता की है जो राजनीति में धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। या यूं कहिए कि सामान्य शिष्टाचार में गिरावट आती जा रही है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि राजनीति आज के दौर में कठिन प्रतिस्पर्धा से भरा खेल है।
इस खेल में भाग लेने वाले का सब कुछ दांव पर लगा होता है। बरसों से हम सुनते आए हैं कि युद्ध व प्रेम में सब कुछ जायज है। कमोबेश राजनीति के लिए भी यह बात कही जा सकती है जहां सब कुछ जायज होता है। यानी राजनीति भी एक तरह से युद्ध ही है जो चुनावों के जरिए राजनीतिक पार्टियों के मध्य लड़ा जाता है। यह बात और है कि युद्ध में नियमों का पालन करना होता है।
इन नियमों को हम महाभारतकाल से ही सुनते आ रहे हैं। सही मायने में हमें अपनी प्राचीन सभ्यता पर गर्व है और होना भी चाहिए। हमारी सभ्यता को दुनिया की सबसे पुरानी और सर्वश्रेष्ठ सभ्यता माना जाता है। फिर भी यह समझ नहीं आता कि आज के तार्किक व ज्ञान के युग में हम अपनी इस गौरवशाली सभ्यता को क्यों भुलाते जा रहे हैं?
महाभारत कालीन युद्ध शास्त्र के अनुसार हमें अपने पराजित शत्रु का भी अपने अग्रज के समान सम्मान करना चाहिए चाहे उससे कितनी ही शत्रुता क्यों नहीं रही हो। होना तो यह चाहिए कि आज की राजनीति में भी इस सिद्धांत का पालन किया जाए। लेकिन हमारे राजनेता चुनावों के दौर में इसको बिल्कुल ही भुला बैठते हैं। यह हमारी संस्कृति के लिए दु:खद होने के साथ-साथ बहुत ही घातक है।
हमें किसी से गंभीर शिकायतें हो सकती है या फिर गंभीर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन किसी पर जूते फेंकने को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। पंजाब के मुख्यमंत्री 89 वर्षीय प्रकाश सिंह बादल के साथ ऐसा बर्ताव तो ताजा ही हुआ है। इस तरह की घटनाओं की तीव्र भत्र्सना की जानी चाहिए क्योंकि यह कृत्य वरिष्ठता व अनुभव का अपमान करने वाला है। लेकिन दुर्भाग्यवश लोग निंदा तक नहीं करते।
ऐसे मामलों में पुलिस की कार्रवाई काफी नहीं है। होना तो यह चाहिए कि ऐसी घटनाओं पर विपक्षी उम्मीदवार खुद घोषणा करें कि वह एक वरिष्ठ राजनेता के सार्वजनिक अपमान होने पर अपना नामांकन वापस ले रहा है। ऐसा करने से सही संदेश जाएगा और संबंधित उम्मीदवार का कद बढ़ेगा। पर हम बड़े बनने की चाह में इतने छोटे हो गए हैं कि ऐसा सोचते तक नहीं।
बादल ऐसे इकलौते राजनेता नहीं है जिनका सार्वजनिक तौर पर ऐसा अपमान हुआ हो। इससे पहले भी नेताओं पर जूते व स्याही फैंकने, थप्पड़ मारने आदि की घटनाएं हुई हैं। झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुवर दास व अन्य पर भी सार्वजनिक तौर पर जूते फेंके गए हैं।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी कई बार अपमानित होना पड़ा है। इसका सबसे दु:खद पहलू यह है कि जिन्हें ऐसी घटनाओं की निंदा करनी चाहिए वे मूकदर्शक बन ऐसी घटनाओं का आनंद लेने में नहीं चूकते।
यह बात सही है कि नेताओं पर हल्की-फुल्की टिप्पणियां, निंदा करना, मजाक उडाना, व्यंग्य करना, आलोचना करना आदि लोकतंत्र में स्वस्थ राजनीति के सामान्य अंग है। पर, जब आलोचना का मकसद किसी पर व्यक्तिगत प्रहार हो और अपमान की श्रेणी में आ जाए तो राजनेताओं को कोई न कोई लक्ष्मण रेखा तो खींचनी ही होगी।
लोकतंत्र किसी भी कीमत पर किसी को भी व्यक्ति या समुदाय के खिलाफ नफरत भरे अभियान चलाने की इजाजत नहीं देता। आज तो यह सब हमारे राजनेताओं के संवाद के आवश्यक अंग बनते दिख रहे हैं। आज भले ही केन्द्र में सत्तासीन भाजपा नेता सोशल मीडिया में नरेन्द्र मोदी पर होने वाले टिप्पणियों को प्रधानमंत्री की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाली कह रहे हैं। लेकिन उनको यह भी याद रखना होगा कि गत लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर भी तमाम तरह की क्षुद्र टिप्पणियां खूब हुई थी।
उनके खिलाफ कई अपमानजनक नारे गढ़े गए थे। हम यह भी जानते हैं कि प्रचार समूहों के जरिए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की खिल्ली उड़ाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही। सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों तरफ से वरिष्ठ नेताओं को लेकर सोशल मीडिया के माध्यम से अनर्गल व अपमानजनक टिप्पणियों से भरा प्रचार युद्ध जारी है। रामायण काल का उदाहरण हमारे सामने हैं जिसमें भगवान राम खुद अपने शत्रु रावण की विद्ववता का सम्मान करते हैं।
दूसरी ओर भारतीय संस्कृति का झंडारबरदार बनने वाली पार्टी के नेता तक जुबानी जंग में कूदते रहते हैं। राजनीति के अपराधीकरण व भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर तो सख्ती कर काबू पाया जा सकता है। लेकिन राजनीतिक दल व राजनेता सामान्य शिष्टाचार की अवहेलना करते दिखें तो यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि आम जनता खास कर नौजवानों पर इसका सकारात्मक असर पड़ेगा?