scriptशिक्षा पर हावी परीक्षा | Exam dominate on education | Patrika News

शिक्षा पर हावी परीक्षा

locationजयपुरPublished: Feb 19, 2019 01:22:36 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

परीक्षा की बात सब जगह हो रही है, पर सीखने-सिखाने या शिक्षा को हाशिए पर रखा जा चुका है। शिक्षकों की पेशेवर तैयारी की चिंता भी नहीं की जा रही है। आखिर शिक्षित करने का जिम्मा शिक्षक के पास है और शिक्षक को शैक्षिक रूप से सशक्त बनाने की जिम्मेवारी शैक्षिक तंत्र की है।

school education

school education

केआर शर्मा, स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय

स्कूली शिक्षा को लेकर शिक्षा का अधिकार यानी कि आरटीई-2009 में बच्चों को बिना रोके अगली कक्षा में भेजने की व्यवस्था के पीछे समझ यह थी कि परीक्षा छलनी का काम करती है, परीक्षा बच्चों में भय पैदा करती है और प्रारंभिक कक्षाओं के स्तर पर परीक्षा इस बात की वजह नहीं बननी चाहिए कि बच्चे शिक्षा से जी चुराने लगे। लेकिन एक दलील देकर, कि बच्चे सीख नहीं पा रहे हैं और आगे की कक्षाओं के परिणाम प्रभावित हो रहे हैं, शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम में संशोधन के साथ यह विचार खारिज कर दिया गया। अगर शिक्षा को महज कॅरियर के रूप में देखा जाए तो बात अलग दिशा में जाएगी, लेकिन लोकतंत्र को पोषित करने की बात की जाए तो शिक्षा एक प्रमुख औजार बनता है।

हमारा परीक्षा से मोह गहरा है। सतही तौर पर देखा जाए तो इस बात में दम दिखाई देता है कि बच्चे फेल होने के डर से पढ़ते हैं, और शिक्षक भी अपने स्कूल का परीक्षा परिणाम बेहतर दिखाने के लिए अध्यापन करते हैं। दरअसल, मामला कुछ गहरा है। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि हमारी नियति ही कुछ ऐसी बना दी गई है कि चाहे स्कूलों में शिक्षा हो या न हो, मगर परीक्षा तो होनी ही चाहिए। शैक्षिक-सामाजिक पहलुओं को देखें तो तस्वीर कुछ उलट दिखाई देती है। स्कूलों की स्थापना के पीछे गहरी समझ यह है कि यहां बच्चे पढऩा-लिखना सीखें, उनमें अपेक्षित संवैधानिक मूल्य विकसित किए जाएं। एक बात और जोडऩे की आवश्यकता है कि सीखना हमेशा इंसान की मर्जी का मामला है। किसी भी व्यक्ति को भय का डंडा दिखाकर या दबाव डालकर नहीं सिखाया जा सकता। अरस्तु ने भी यही कहा है द्ग हर इंसान में सीखने की जन्मजात क्षमता होती है और वह स्वत: ही बहुत कुछ सीखता रहता है। सवाल इस बात का है कि क्या हमारे जीवन में हम जो भी सीखते हैं, वह परीक्षा के डर की वजह से ही सीखते हैं?

आरटीई में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा स्थापित करने की भी बात है। विडंबना है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा आज भी सपना बना हुआ है। इसे लेकर कई राज्यों में हलचल तो है, मगर यह मूल्यांकन की कैद से आजाद नहीं है। परीक्षा व्यवस्था में सुधार को लेकर आजादी के पहले से विमर्श किया जाता रहा है। अंग्रेजों के जमाने में हंटर कमीशन 1882, कलकत्ता यूनिवसिर्टी कमीशन या सेडलर कमीशन 1917-1919, हर्टोग कमेटी 1929, सार्जेंट प्लान 1944, आजाद भारत के प्रथम शिक्षा आयोग मुदलियार कमीशन 1952-53 और उसके बाद के हर आयोग में इस बात को उठाया गया कि भारत में परीक्षा आधारित शिक्षण का बोलबाला है। परीक्षा एक एजेंडा बन चुका है शिक्षा विभाग का। लिहाजा, तमाम समितियां और आयोग परीक्षा को लेकर चिंता तो जताते रहे, पर कोई आशाजनक परिणाम सामने नहीं आए।

उल्लेखनीय है कि मैकाले ने जो कथित शिक्षा का ढांचा बनाया था, उसका मकसद दलित और वंचित वर्ग को शिक्षित करना कतई नहीं था। तब सवाल करने की मानसिकता को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाता था। मैकाले मानसिकता के दर्शन आज भी आजाद भारत में किए जा सकते हैं। अंग्रेजों के दौर के बारे में राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा (एनसीएफ) 2005 में कहा गया है कि जो कुछ भी पढ़ाया जाता है और परीक्षा के बाद जो उपाधि दी जाती है, वह अमूमन एक नियत पाठ्यपुस्तक से पढ़ी गई संकीर्णता से परिभाषित विषयवस्तु का अनुपालन और प्रवीणता थी।

भारतीय शिक्षा पद्धति के सामने सबसे बड़ी चुनौती गहराई तक पैठ बना चुकी उस दफ्तरशाही सोच को निकाल फेंकने की है जो प्रगतिवादी होने का चोला ओढ़े हुए है। इस पर एनसीएफ-2005 के परीक्षा में सुधार नामक फोकस पेपर के अध्यक्ष से भारत के एक राज्य के शिक्षा सचिव ने पूछा कि फिर लिपिक कैसे तैयार होंगे? शायद यह सुनकर लॉर्ड मैकाले भी अपनी कब्र से मुस्करा दिया होगा।

वर्तमान में स्कूली शिक्षा व्यवस्था के चरमराने का एक प्रमुख कारण यही दिखाई देता है कि परीक्षा, शिक्षा पर हावी है। समाज और शिक्षा जगत की नियति ही कुछ इस प्रकार की बनाई जा चुकी है कि परीक्षा के बिना शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। अगर हम किसी राज्य की शिक्षा प्रणाली को गौर से देखें तो शैक्षिक सत्र का अधिकांश वक्त परीक्षा संचालन में ही खर्च होता है। स्कूल से लेकर राज्य की एससीईआरटी तक सभी परीक्षा और आंतरिक मूल्यांकन की योजना बनाते रहते हैं। इस प्रक्रिया में बच्चों को सही अर्थों में अध्ययन का अवसर ही नहीं मिल पाता है। अमरीकी शिक्षाविद जॉन होल्ट कहते हैं द्ग क्या परीक्षा का जाल होना जरूरी है? किसे इनाम मिले, और किसे सजा, जब परीक्षा इस बात को निर्धारित करने लगती है तो वह जाल बन ही जाती है।

ध्यान देना होगा कि परीक्षा की बात सब जगह हो रही है, पर सीखने-सिखाने या शिक्षा को हाशिए पर रखा जा चुका है। शिक्षकों की पेशेवर तैयारी की चिंता भी नहीं की जा रही है। आखिर शिक्षित करने का जिम्मा शिक्षक के पास है और शिक्षक को शैक्षिक रूप से सशक्त बनाने की जिम्मेवारी शैक्षिक तंत्र की है। परीक्षा को अगर थर्मामीटर की उपमा के रूप में इस्तेमाल करें तो इससे बच्चों के शैक्षिक तापमान को मापा भर जाता है। अगर किसी को बुखार आ रहा है, तो उसके बुखार को बार-बार मापने से बुखार उतरने वाला नहीं है। सच कहें तो शिक्षा की तमाम योजनाएं परीक्षा की बलि चढ़ जाती हैं।

अगर हम इस धारणा के साथ चलते हैं कि हर इंसान में सीखने की क्षमता होती है और मनोवैज्ञानिक पक्ष कहता है कि सीखना भय रहित बेहतर होता है तो फिर परीक्षा की क्या जरूरत? इतना ही नहीं, परीक्षा और भी कई विकृतियां समाज में पैदा करती है, मसलन, बेइमानी, बदमाशी। क्या उम्मीद की जाए कि परीक्षा के प्रतिगामी निर्णय की बैसाखियों के सहारे ऐसा समाज गढ़ा जाएगा जो सही मायनों में लोकतंत्र को पोषित करेगा? इसकी संभावनाएं नगण्य ही कही जा सकती हैं।

(लेखक, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के साथ खरगोन (मप्र) के आदिवासी इलाके में कार्यरत। लंबे समय एकलव्य संस्था से जुड़े रहे।)

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो