ओपिनियन

तानाशाही का जरिया है डेटा पर एकाधिकार

भाग-3
महामारी के दौर में भी हमारी स्वतंत्रता की सुरक्षा सुनिश्चित करने के तीन सिद्धांत: नागरिक के बारे में जुटाई गई जानकारी का इस्तेमाल उसकी सहायता के लिए हो, निगरानी तंत्र दोतरफा हो और एक ही जगह पर बहुत सारा डेटा एकत्रित न किया जाए।

Mar 26, 2021 / 05:22 pm

सुनील शर्मा

– प्रो. युवाल नोआ हरारी, बेस्ट सेलर्स ‘सैपियंस’, ‘होमो डेस’ और ‘21 लेसंस फॉर द ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ के लेखक

जिस तरह वैज्ञानिक और राजनेता महामारी से निपटने के लिए अपने-अपने हिस्से की भागीदारी कर रहे हैं, वैसे ही इंजीनियर भी नए डिजिटल प्लेटफॉर्म और निगरानी उपकरण सृजित कर रहे हैं जिनसे लॉकडाउन में कामकाज सुचारु रखना संभव हो सका है। लेकिन डिजिटलीकरण और निगरानी ने हमारी निजता को खतरे में डाल दिया है और अप्रत्याशित रूप से सर्वाधिकारवादी शासन व्यवस्था के सिर उठाने के रास्ते खोल दिए हैं। सारी शक्ति मिलने की राह आसान कर दी है। 2020 में जनसमूह पर निगरानी रखे जाने को न केवल ज्यादा वैधानिकता मिल चुकी है, बल्कि यह पहले से अधिक सामान्य भी हो गया है।

महामारी के खिलाफ जंग जरूरी है, लेकिन क्या इस प्रक्रिया में यह जरूरी है कि हमारी स्वतंत्रता खत्म हो जाए? वाजिब निगरानी और निजता संबंधी आशंकाओं के बीच संतुलन बिठाना राजनेताओं का काम है, न कि इंजीनियरों का। महामारी के वक्त में भी, डिजिटल तानाशाही से हमारी सुरक्षा को सुनिश्चित करने में ये तीन मूल सिद्धांत अहम साबित हो सकते हैं – पहला, जब भी किसी व्यक्ति से संबंधित कोई जानकारी जुटाई जाए, विशेषकर उनके शरीर में क्या घटित हो रहा है इससे संबंधित, तो उस जानकारी का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ उनकी सहायता के लिए ही होना चाहिए न कि जानकारी का दुरुपयोग कर लोगों को नियंत्रित करने या उन्हें नुक सान पहुंचाने के लिए। महामारी पर निगरानी के लिए जो भी व्यवस्था हम बनाते हैं, उसके लिए विश्वास की वैसी ही अवधारणा को प्रमुखता देना जरूरी है, निजी जानकारियों को लेकर जो भरोसा एक मरीज और उसके निजी चिकित्सक के बीच होता है। दूसरा यह कि निगरानी का तंत्र दोतरफा होना चाहिए यानी आम लोगों पर व्यक्तिगत निगरानी के साथ ही सरकार और बड़े कार्पोरेट घरानों की भी निगरानी होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, कोरोना काल में सरकार भारी मात्रा में फंड जारी कर रही है। इस प्रक्रिया में और अधिक पारदर्शिता लाने की जरूरत है।

एक नागरिक के तौर पर मैं चाहूंगा कि यह जानना बेहद आसान हो कि सबको क्या मिल रहा है, और कौन तय कर रहा है कि पैसा कहां जाना है। मैं यह भी सुनिश्चित करना चाहूंगा कि पैसा कारोबारियों में उन्हीं को मिले जिन्हें सख्त जरूरत है बजाय उन औद्योगिक घरानों के, जिनके मालिक किसी मंत्री के मित्र हैं। यदि सरकार कहती है कि महामारी के चलते ऐसा निगरानी तंत्र तैयार करना बेहद जटिल है, तो इस पर भरोसा मत करें। यदि आम जनता की निगरानी शुरू करना जटिल नहीं है, तो इसकी निगरानी भी जटिल नहीं है कि सरकार क्या कर रही है।

तीसरा सिद्धांत यह कि एक ही जगह बहुत सारा डेटा एकत्रित न किया जाए। न तो महामारी के दौरान और न ही महामारी खत्म होने के बाद। डेटा पर एकाधिकार, तानाशाही का जरिया साबित होता है। इसलिए अगर हम महामारी को रोकने के लिए लोगों का बायोमीट्रिक डेटा जुटा रहे हैं तो यह कार्य स्वतंत्र स्वास्थ्य निकाय को करना चाहिए न कि पुलिस को। ऐसी कवायद के चलते जो डेटा जुटाया जाए, उसे सरकार के बाकी मंत्रालयों और बड़े निगमों के डेटा केंद्रों से अलग रखा जाना चाहिए। निस्संदेह इससे काम का अनावश्यक बोझ बढ़ेगा और दक्षता घटेगी, लेकिन यह डिजिटल तानाशाही पर अंकुश के लिए जरूरी समाधान है, कोई ‘बग’ नहीं।

2020 की अप्रत्याशित वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियां कोविड-19 संकट का समाधान करने में नाकाम रहीं। उन्होंने कोरोना महामारी को एक प्राकृतिक आपदा से राजनीतिक दुविधा में तब्दील कर दिया। जब ‘काली मौत’ से लाखों लोग मारे गए थे तो किसी ने शासन से उस संकट के समाधान की अधिक अपेक्षा नहीं की थी। एक तिहाई अंग्रेजों की मौत के बावजूद इंग्लैंड के किंग एडवर्ड तृतीय को गद्दी नहीं छोड़नी पड़ी थी। चूंकि शासकों की शक्तियां सीमित थीं और वे महामारी के आगे लाचार थे इसलिए किसी ने उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया। परन्तु आज वियतनाम से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक विभिन्न राष्ट्रों के पास विज्ञान के ऐसे साधन हैं जो बिना वैक्सीन के भी कोविड-19 को थाम सकते हैं। हालांकि इन साधनों का आर्थिक और सामाजिक मूल्य कहीं ज्यादा है। हम वायरस को हरा तो सकते हैं, लेकिन इस बारे में निश्चिंत नहीं हैं कि हम जीत की कीमत चुकाना चाहते हैं या नहीं; इसीलिए वैज्ञानिक उपलब्धियों ने राजनेताओं की जिम्मेदारी कई गुना बढ़ा दी है। दुर्भाग्य है कि कई राजनेता इस जिम्मेदारी की गंभीरता समझने में विफल रहे हैं। जैसे एक समय अमरीका और ब्राजील के जवादी राष्ट्रपतियों ने कोरोना के खतरे को गंभीरता से नहीं लिया, विशेषज्ञों की राय सुनने से इनकार कर दिया और महामारी को साजिश बताने वाली कहानियों को हवा दी। उन्होंने रोकथाम के लिए खुद कोई ठोस संघीय कार्ययोजना नहीं बनाई, बल्कि राज्यों और स्थानीय निकायों की कोशिशों को भी विफल कर दिया। ट्रंप और बोल्सोनारो प्रशासन की लापरवाही से दोनों देशों में लाखों लोग जान से हाथ धो बैठे। ब्रिटेन में शुरुआत में सरकार कोविड -19 से ज्यादा ब्रेग्जिट में व्यस्त रही। बोरिस जॉनसन प्रशासन वायरस से ब्रिटेन को आइसोलेट करने में नाकान रहा, जो वास्तव में सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। कोविड-19 से निपटने में इजरायल भी राजनीतिक कुप्रबंधन का शिकार हुआ। ताइवान, न्यूजीलैंड और साइप्रस की तरह इजरायल में प्रवेश का मुख्य द्वार एक ही है – बेन गुरियन एयरपोर्ट। जिस वक्त कोरोना चरम पर था, नेतन्याहू सरकार ने न यात्रियों को क्वारंटीन किया, न सही तरह से स्क्रीनिंग की, बल्कि अपनी लॉक डाउन नीतियां लागू करने में भी नाकाम रही।

Copyright – Yuval Noah Harari 2021/ फरवरी 2021 में यह लेख फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित हुआ।

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