तोक्या देशवासी यह मान लें कि संसद के बजट सत्र का भी वही हश्र होगा जो शीतकालीन सत्र और उससे पहले के सत्रों का हुआ। यानी बजट सत्र में जैसे-तैसे बजट भले पास हो जाए क्योंकि वह संवैधानिक आवश्यकता है लेकिन और कुछ नहीं होगा। न जीएसटी सहित अन्य विधेयक पास होंगे और ना ही ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे सांसद कोई सार्थक बहस कर पाएंगे। बजट सत्र की तारीखों की घोषणा के महज चौबीस घंटे के भीतर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और प्रमुख विपक्षी पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के बयान तो कम से कम यही निष्कर्ष निकालने को मजबूर कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने जो कहा उसका मतलब है कि लोकसभा चुनावों की हार से गांधी परिवार तिलमिलाया हुआ है और हार का बदला लेने के लिए संसद नहीं चलने दे रहा। उधर राहुल गांधी ने कहा है कि प्रधानमंत्री 18 माह से बहानेबाजी कर रहे हैं। वे इसे छोड़ काम करके दिखाएं। दोनों के हमले सरकार या कांग्रेस पर नहीं व्यक्तिगत हैं और इसी से लगता है कि संसद इस बार भी नहीं चल पाएगी। राष्ट्रपति उसके दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को सम्बोधन देंगे, सभी मिलकर उसके लिए रस्मी धन्यवाद देंगे, रेल और आम बजट पास करेंगे और फिर दोनों सदन सांसदों की कुश्ती का अखाड़ा बन जाएंगे। बैठकें पूरी होने पर सत्तापक्ष और विपक्ष मिलकर अपने वेतन-भत्ते उठाएंगे और अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों अथवा पांच राज्य विधानसभा चुनावों की रणभूमि में लौट जाएंगे।
क्या इसी के लिए मतदाता इन सांसदों को निर्वाचित करते हैं? दोनों पक्षों के नेताओं को यह स्मरण रखना चाहिए कि भारतीय लोकतंत्र भले ब्रिटेन और अमरीका जितना पुराना नहीं हो लेकिन विश्व में उसकी अपनी प्रतिष्ठा है। जब 80 करोड़ मतदाता शांति से वोट डालते हैं तब दुनिया हमारी वाह-वाह करती है लेकिन जब 750 सांसद संसद नहीं चलने देते, हंगामा और मारपीट करते हैं तब वही थू-थू करती है। तय हमें करना है, हम क्या चाहते हैं?
हम दुनिया को दिखाने और दलितों को लुभाने के लिए संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का 125वां जयंती वर्ष मनाते हैं लेकिन उन्हीं के द्वारा बनाई संसद और संविधान का सम्मान नहीं करते? अब भी समय है जब हमारे लोकतंत्र के ये सारे कर्णधार, चाहे वे सरकार में हों या विपक्ष में, मिल-बैठकर तय करें जिनसे संसद चले और भारत तथा भारतीयों का सिर विश्व में गर्व से ऊंचा हो।
और कुछ नहीं तो आजादी से लेकर 1980 तक की संसदीय कार्यवाही के ब्यौरे को हम पढ़ लें ताकि उन्हें पता चल सके कि तमाम विरोधों और पसंद-नापसंद के बावजूद तब संसद अमूमन शांतिपूर्ण कैसे चलती थी? कैसे देश हित से जुड़े राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहस कर देश का पक्ष तय होता था? यदि हम यह कर पाए तो फिर काम नहीं तो वेतन नहीं या या न्यूनतम बैठकों के नियम बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। बस जरूरत सभी पक्षों को बड़प्पन दिखाने और अपना अहंकार त्यागने की है। तभी भारतीय लोकतंत्र बड़ा हो पाएगा।