जल्दबाजी में लागू किया
केन्द्र सरकार अब तक के सबसे बड़े कृषि सुधार के रूप में इन तीन कानूनों को लाई थी। लागू करने के 14 माह बाद कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा को केन्द्र सरकार की एक बड़ी रणनीतिक विफलता के रूप में देखा जा सकता है। ऐसा लगता है कि देश को बड़े स्तर पर प्रभावित करने वाले इन कानूनों को लागू करने से पहले पूरी तैयारी नहीं की गई और जल्दबाजी में इन्हें लागू कर दिया गया। कानूनों के अन्तर्गत सीधे तौर पर यह व्यवस्था कर दी गई कि मंडी प्रणाली को बंद कर खुले बाजार के माध्यम से फसलें बेची जाएंगी। किसान संगठनों का तर्क था कि कृषि उपज मंडियों से किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य ही नहीं मिलता बल्कि इससे बाजार भी रेगुलेट होता है। राज्यों को मंडी शुल्क के तौर पर आमदनी होती है तो किसानों के लिए बुनियादी सुविधाएं जुटाई जाती है। मंडियां खत्म हो गईंए तो किसानों को एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलेगा। सरकार भले ही वन नेशन वन मार्केट का नारा दे रही हो लेकिन किसानों की मांग थी कि वन नेशन वन एमएसपी होना चाहिए। हालांकि, केंद्र सरकार तथा भाजपा लगातार दावा करती रही कि नए कानूनों से न्यूनतम समर्थन मूल्य को कोई खतरा नहीं है। वहीं, मंडियों की व्यवस्था भी बनी रहेगी।
भरोसे का संकट
सब जानते हैं कि खुले बाजार में भावों का उतार-चढ़ाव होता है और सही मूल्य हासिल करने के लिए इंतजार करना होता है। जब बपर फसल होती हैए तो किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। किसानों के पास भंडारण की व्यवस्था नहीं होती और उन्हें तुरन्त फसलें बेचनी होती हैं। ऐसे में प्रतिस्पर्धा के वातावरण में उन्हें घाटा उठाना पड़ता है। इसलिए कानून लागू करने से पहले भंडारण, परिवहन, अवशीतलन जैसे आधारभूत ढांचे को मजबूत किया जाना था, जो नहीं किया गया। यही वजह थी कि किसान व प्रतिपक्षी दलों ने सदैव यह आशंका जताई कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य ;एमएसपी प्रणाली और मंडियों को खत्म करने जा रही है। इन आशंकाओं को भी मजबूती से खारिज करने का काम नहीं हुआ। विवाद की स्थिति में न्यायालयों के बजाय सरकारी अधिकारियों पर भरोसा करने के प्रावधान से किसानों के मन में यह बात बैठ गई कि अफसर हमेशा किसानों की बजाय बड़े व्यापारियों का पक्ष लेंगे।
मौका गंवाया
इस निर्णय से देश में दो प्रकार की स्थितियां बन जाएंगी। जिन राज्यों में इन कानूनों से मिलते-जुलते प्रावधान लागू किए हैं, वहां किसानों को नियमित रूप से फायदा मिल रहा है। अभी चल रहे आंवला के भाव प्रतिस्पर्धा के चलते दोगुना हो गए हैं। क्या किसान पुनरू आधे भावों में माल बेचना चाहेगाघ् जहां इसी प्रकार के कानून लागू हो चुके क्या वहां की सरकारें पुनर्विचार करेंगी. क्या वहां का किसान इस अवसर को हाथ से जाने देगा कि वह देश में कहीं भी अपना माल बेच सकता है। जिन प्रदेशों में कानून अभी लागू नहीं हुएए वहां कैसी स्थिति होगी, यह भी स्पष्ट है। वहां के किसानों को तो स्थानीय मंडियो की परपरागत व्यवस्था पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। कहा तो यह भी जा रहा है कि इन कानूनों के प्रावधानों ने दलालों और व्यापारियों के एकाधिकार को तोडऩे का काम किया था। यदि पूरे देश में पूरी तैयारी और विचार-विमर्श के बाद उचित संशोधनों के साथ में कानून लागू होते तो कृषि के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आ सकते थे, पर आधी-अधूरी तैयारी के साथ केवल अफसरशाही के भरोसे कानून लागू करने के कदम ने एक बड़ी मंजिल की ओर कदम बढ़ाने से पूर्व ही रास्ते बंद कर दिए।
राजनीतिक असर
चुनाव वाले राज्य पंजाब की स्थिति कुछ भिन्न है। वहां राज्य सरकार ही लगभग सारा गेहूं खरीद लेती है। किसान मौज में है। उसको अपनी फसल को समर्थन मूल्य में बेचना सहज है। जब तक उसे अधिक मूल्य मिलता न दिखाई देए उसके लिए वर्तमान स्थिति ही श्रेष्ठ है। ऐसे में बड़ा सवाल यह भी है कि कौन से किसान की प्रसन्नता रंग लाएगी यह भविष्य का निर्णय करेगा। तीन कानून वापसी से पंजाब और पंजाब के किसानों का कितना भला होगा, चुनाव वाले दूसरे राज्यों में इसका कितना असर होगा, सवाल उत्तरप्रदेश का भी है जहां भी किसानों से जुड़े कई सवाल अभी सामने हैं। यह भी देखना होगा कि किसान कानून वापसी के सरकार के कदम का समूचे देश में क्या संदेश जाने वाला है। लंबे समय तक किसान कानूनों को मुद्दा बनाकर समय-समय पर हुए चुनावों में जाने वाले विपक्षी दलों को कितना फायदा मिलेगा यह भी भविष्य के गर्भ में है। फिलहाल तो यह भी कहा जा रहा है कि विपक्ष के पास मौजूद एक बड़ा चुनावी मुद्दा सरकार के इस कदम से उसके हाथ से छिटक गया है।
समझाने का तरीका
आंदोलनरत किसान संगठनों का पक्ष देखा जाए तो उनका लंबा आंदोलन समाप्त होना भी एक उपलब्धि ही होगी। हालांकि संवाद की राह खुली रहती तो यह बहुत पहले भी हो सकता था। हमारा देश कृषि प्रधान कहा जाता है तो फिर किसानों के हित.अहित की चिंता भी सरकारों को ही करनी होगी। इसमें राजनीति नहीं होनी चाहिए। जो कानून बनें वे किसानों के हित में हो सकते हैं। बशर्ते इसका फैसला किसानों द्वारा ही कराया जाए। सरकार यदि यह मानती है कि वह किसानों को कानूनों का मर्म नहीं समझा पाई तो अभी देरी नहीं हुई है। किसानों के हित से जुड़े कानूनों को एक-एक राज्य में लागू करते जाएं और परिणाम सार्वजनिक करते जाएं। भाजपा शासित राज्यों से इसे शुरू किया जा सकता है। यदि इनसे किसानों का भला होता है तो फिर चिंता किस बात की.
भावी पीढ़ी
भारत में किसानों की कमाई पूरी तरह से मानसून, पैदावार से जुड़ी अनिश्चितताओं और बाजार के अनुकूल रहने पर निर्भर है। इससे खेती में जोखिम काफी रहती हैं। किसानों को उनकी मेहनत के अनुसार उपज का मूल्य नहीं मिलता। सवाल यह है कि किसानों की भावी पीढ़ी की आवश्यकताएं, अपेक्षाएं व महत्वाकांक्षाएं क्या वर्तमान हालात से पूरी हो सकेंगी. जरूरत पड़ी तो क्या वे कानूनों को तोडऩे का प्रयास नहीं करेंगे नए कानूनए नए युग को ध्यान में रखकर ही बनाने पड़ेगे। ऐेसे प्रावधान करने होंगे जिनमें कृषि लागत कम करने के साथए पानी-खाद की व्यवस्था व बिजली की उपलब्धता हो। साथ ही फसलों का उचित मूल्य भी मिले।
काश्तकारी की तकनीक की ओर भी ध्यान देना होगा। भावी पीढी को नया वातावरण, जीवनशैली, नई तकनीक से भी जोडऩा है। उनके बच्चों को उच्च शिक्षा से भी जोडऩा है। यह सब वर्तमान व्यवस्था से तो संभव नहीं हो सकता। आय-खर्च का संतुलन आवश्यक है। कृषि विभागों को खेती की योजनाएं बनानी पड़ेगी, नहीं तो उनको भी जिमेदार बनाने के लिए कानून बनाना पड़ेगा।
क्षेत्रानुसार कानून हो
कृषि इस देश की आर्थिक रीढ़ है। इसके कानूनों को भी समग्र दृष्टि से ही देखना होगा। आज खण्ड दृष्टि से देखा जा रहा है। अधिकारी परपरागत खेती को जानते ही नहीं। वे पश्चिम के कृषि कानून लागू करवाते रहते हैं। अब सरकार के पास पर्याप्त समय उपलब्ध है। देश के भूगोल को ध्यान में रखकर कानून बनेए यह आवश्यक है। आज देशभर में एक जैसे कानून लागू करने का प्रयास करते हैं। क्षेत्रानुसार कानूनों में विशेष प्रावधान होना चाहिए। तब हमारे कानून सर्वमान्य हो जाएंगे। कृषक भी समृद्ध होगा। गांवों से पलायन भी रुक सकेगा। आन्दोलन तो होंगे ही नहीं। लोकहित, जनभावना और किसानों की नई पीढ़ी को ध्यान में रख ही निर्णय हों ताकि कहीं असमंजस ना रहे। किसान को अन्नदाता ही मानना पड़ेगाए चुनावी मोहरा नहीं।
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