भारतीय जनता पार्टी को जनसंघ के वक्त से ही व्यापारियों की पार्टी कहा जाता है। जब यूपीए की सरकार खुदरा के क्षेत्र में ५१ फीसदी एफडीआई की बात कर रही थी, तब भाजपा ने उसका खुलकर विरोध किया। वह तत्कालीन सरकार की इस सफाई से सन्तुष्ट नहीं हुई कि इससे
रोजगार बढ़ेगा। उसने सरकार की यह दलील भी नहीं मानी कि इससे देश में मंहगाई कम होगी। वर्ष २०१४ के आम चुनाव के पहले खुद
अरुण जेटली ने कहा था कि सरकार में आकर भी हमारा नजरिया नहीं बदलने वाला। तब अब क्या हुआ? इक्यावन की जगह सौ फीसदी एफडीआई कैसे हो गई?
भले अन्तरराष्ट्रीय दबाव हो या अन्य कोई दबाव, सरकार को तो यह सुनिश्चित करना ही चाहिए कि इसका भारत के गांव-गांव तक बैठे करोड़ों छोटे-छोटे व्यापारियों पर कोई असर नहीं हो। नोटबंदी और फिर जीएसटी की मार से पहले ही हाल-बेहाल यह रोज कमाकर खाने और अपने परिवार को खिलाने वाले छोटे-छोटे दुकानदार और बदहाल न हो जाएं। देहरादून के ट्रांसपोर्टर प्रकाश पाण्डे की तरह अपना जीवन समाप्त करने जैसे हालात नहीं बनें। विदेशी धनपति भारत आने को लालायित हैं। उन्हें भारत नहीं १३० करोड़ भारतवासियों का बाजार दिख रहा है। वे साल-छह महीने घाटा खाकर भी इन छोटे-छोटे दुकानदारों को खाने की तैयारी करके आएंगे। यह भाजपा-कांग्रेस नहीं, इस देश की सरकार का जिम्मा है कि वह उन्हें बर्बाद होने से बचाए।