ताजा घटना शोपियां की है, जहां उग्र भीड़ को काबू करने के लिए सेना की एक टुकड़ी को गोलियां तक चलानी पड़ीं। जम्मू-कश्मीर सहित देश के कुछ अशांत क्षेत्रों के हालात काबू करने के लिए, जहां सेना बुलाई गई है वहां सेना को विशेष संरक्षण मिला हुआ है। इस संरक्षण के तहत उसके किसी भी एक्शन के लिए उस पर कोई मुकदमा नहीं चल सकता। मानवाधिकारों के पैरोकार कई संगठन सालों से इसे माप्त करने की मांग कर रहे हैं लेकिन केन्द्र सरकार सहित देश के अधिकांश राजनीतिक दल इसे बनाए रखने के पक्ष में है।
शोपियां की घटना में वहां की राज्य सरकार की ओर से सेना के मेजर और अन्य फौजियों के खिलाफ दायर एफआईआर ने सेना और देश, दोनों में एक अलग सी बेचैनी का माहौल बना दिया है। अब मेजर के फौजी पिता ने अपने पुत्र की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। ऐसी नौबत आई क्यों? सेना अपने देशवासियों से लडऩे के लिए नहीं है। सरकार उसे इस काम में लगाती है तब उसी का जिम्मा है, उन्हें मुकदमेबाजी से बचाने का। एक तरफ केन्द्र सरकार संरक्षण कानून लगाती है, वहीं दूसरी तरफ राज्य सरकार में शामिल होकर वही सेना पर मुकदमा दर्ज कराती है। तब सेना के जवान इसे क्या मानें? कोरी राजनीति?
यदि ऐसा नहीं है तब यह एफआईआर दर्ज ही क्यों हो गई? भाजपा ने पीडीपी से ‘ना ’क्यों नहीं किया? अब जबकि मामला सर्वोच्य न्यायालय तक पहुंच गया है, केन्द्र सरकार को पहल करके इस मामले को सुलझाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि यह चिंगारी आग बनकर सेना में सरकार और राजनीतिक दलों के प्रति ऐसा माहौल बना दे, जिसकी कीमत देश को चुकानी पड़े।