सुप्रीम कोर्ट से लेकर उच्च न्यायालय तक जलस्रोतों पर कब्जों को हटाने के लिए समय-समय पर आदेश दे चुके हैं। हाईकोर्ट के आदेश पर राजस्व अधिनिधम-1959 में संशोधन कर यह कानून बन चुका है कि 1959 में बांध और उसके बहाव क्षेत्रों की जो स्थिति रही, वही लानी चाहिए। अब्दुल रहमान बनाम सरकार मामले में भी जलस्रोतों को उसी स्थिति में लाने के आदेश हैं। पर ऐसे आदेशों की किसी को परवाह नहीं। मॉनिटरिंग कमेटी तक की आंखों में धूल झोंक दी जाती है। कभी कोई आवाज उठती है तो दो-चार दिन बुलडोजर चलाने के नाटक कर लिए जाते हैं।
रामगढ़ बांध की हत्या करने में जल संसाधन विभाग के अलावा जयपुर जिला प्रशासन, भू-जल विभाग, वॉटर एंड सेनेटाइजेशन सपोर्ट ऑर्गनाइजेशन, जलदाय विभाग, जयपुर विकास प्राधिकरण और राजस्व विभाग भी दोषी हैं। पर इनमें प्राय: बाहरी लोग अफसरों के रूप में तैनात रहते आए हैं, जिनका न तो बांध से कोई भावनात्मक जुड़ाव है और न जयपुर से। इसलिए इनमें से बहुतों को जनता के आंसू दिखाई नहीं दिए। कानों में सिक्कों की खनक जरूर सुनाई दी। इसलिए धीरे-धीरे करके बांध का गला घोंट दिया गया। अब यह जानते हुए भी कि बांध को पुनर्जीवित किया जा सकता है, वे झूठे दावे करते जा रहे हैं।
यहां तक दावा किया गया कि बांध के कैचमेंट एरिया में सघन वृक्षारोपण किया जा चुका है। कोई पूछे कितने पेड़ लगाए और कितने जीवित बचे हैं तो उनकी बोलती बंद हो जाएगी। पत्र में यह भी जवाब दिया गया कि प्रवाह क्षेत्र में नदियों के सुगम प्रवाह के लिए 17 किलोमीटर लम्बाई में ‘चैनलाइजेशन’ का काम किया जा चुका है। क्या अधिकारियों को नहीं मालूम है कि यह कार्य विराटनगर से रामगढ़ तक 88 किलोमीटर में करना जरूरी है, तभी बांध में पूरा पानी आ पाएगा।
रामगढ़ बांध की सांसें लौटाने में अधिकारियों की दिलचस्पी कितनी है, इसका अंदाज इस बात से लगा सकते हैं कि नदी-नालों में किए गए आंवटनों को निरस्त करवाने के लिए राजस्व मंडल में 780 रैफरेंस भेजे गए और सात साल मे 271 भी तय नहीं हो पाए। बाकि मामलों के निर्णय में 20 साल तो और लगेंगे ही। मतलब साफ है, इतना समय बर्बाद कर दो कि बांध कभी जीवित ही नहीं हो पाए।
अफसोस इस बात का है कि जयपुर शहर के जनप्रतिनिधि भी मगरमच्छी आंसू भले ही निकाल लें, इस बांध को लेकर उनके मन में दर्द का हल्का सा अहसास भी नहीं है।