हालांकि अभी तक भी तालमेल में अड़चनें आती हैं और सकारात्मक सोच होने के बावजूद आपसी नीतियों के क्रियान्वयन के लिए हमेशा से क्षमता की कमी नजर आती है। हाल ही में श्रीलंका ने भारत को त्रिंकोमल्ली बंदरगाह की जिम्मेदारी सौंपने से लेकर सागरमाला परियोजना में शामिल होने की इच्छा जाहिर थी।
उधर, चीन में चाहे उलझे हुए मुद्दों (न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की सदस्यता और मसूद अजहर को आतंकी मानने) को भले ही सुलझाया ना जा सका हो पर वहां के राजनेताओं की भारत के प्रतिनिधिमंडल की ओर गर्मजोशी व सकारात्मक बयान उत्साहवर्धक थे।
बांग्लादेश में जहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना की भारत यात्रा दो बार रद्द हो चुकी है, तीस्ता जल संधि पर कोई बात नहीं बन पाई है फिर भी उन्होंने अप्रेल के पहले पखवाड़े मे आने की घोषणा की है।
विदेश सचिव की यात्रा के दौरान भारत के विमुद्रीकरण के फैसले को लेकर इन पड़ोसी देशों का रुख नकारात्मक नहीं था। हालांकि यह फैसला भारत ने आतंकवाद और भ्रष्टाचार रोकने के साथ छिपे कालेधन को बाहर निकालने के उद्देश्य से लिया था लेकिन इसकी परेशानी भूटान, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान जो भारत के रुपए को अपने यहां इस्तेमाल करने देते हैं, को भी उठानी पड़ी।
उल्लेखनीय है कि सीमा पर लगने वाले हाटों को इसका सीधा धक्का लगा। इसके बावजूद यह मुद्दा भारत की पड़ोसी देशों में विशेष परेशानी का विषय नहीं बना। इससे पहले उरी में आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान में होने वाले सार्क सम्मेलन मे शामिल होने से भारत ने इनकार किया था तो भूटान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान ने भी आतंकवाद की कड़ी भत्र्सना करते हुए सार्क सम्मेलन में शामिल होने से इनकार कर दिया था।
यहां तक कि श्रीलंका जो तमिल गृहयुद्ध के इतिहास को लेकर भारत से नाराज रहता है, उसने भी चार दिन बाद सार्क सम्मेलन में शामिल होने से इनकार कर दिया था। और, हाल ही में जब भारत में सार्क देशों की विधायिकाओं के अध्यक्षों का सम्मेलन हुआ तो उसमें पाकिस्तान को छोड़ सभी अन्य सदस्य देश शामिल हुए।
इससे यह जाहिर तो होता है कि भले ही चीन दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बढ़ा ले लेकिन इससे पड़ोसी देशों से भारत के रिश्तों पर संकट की आशंका कम ही है। इसमें दोराय नहीं कि वित्तीय ताकत, एकदलीय शासन और 30 बरसों के ढांचागत विकास के अनुभव के कारण चीन भारत से ज्यादा प्रभावशाली दिखता है।
दक्षिण एशियाई देशों के लिए चीन के वाणिज्य और रक्षा सहयोग बहुत लाभकारी भी हैं। लेकिन, भारत के इन देशों के साथ ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संबंध भारत को मजबूती देते हैं। इसके अलावा इन देशों के साथ भौगोलिक जुड़ाव भारत के लिए बेहतर अवसर पैदा करता है।
जरूरत यह सोचने की है कि चीन के साथ उसकी वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर)और मेरिटाइम सिल्क रूट (एमएसआर)पर तटस्थता की नीति से कैसे हटा जाए और परिस्थितियों को कैसे अपने पक्ष में मोड़ा जाए। चाहे चीन के इस क्लब में हम शामिल नहीं भी हों पर उसके नकारात्मक प्रभाव से बचने के लिए हमें लचीले रुख और प्रगतिशील नीति को अपनाते हुए आगे बढऩा चाहिए।
भारत में मौसम और सागरमाला परियोजनाओं को ‘पड़ोसी पहले’ की विदेश नीति के तंत्र के रूप में विकसित किया है। मौसम प्रियोजना 16वीं शताब्दी के ङ्क्षहद महासागरीय देशों के साथ भारतीय जुड़ाव को पुन: उभारने की कोशिश है। इसमें पूर्वी अफ्रीका के तट से लेकर दक्षिण पूर्व एशिया तक के देशों के ज्ञान और संस्कृति की सहभागिता व उन्नति पर काम करना है।
इसका असर समुद्र में व्यापार व सुरक्षा पर भी होगा। मौसम परियोजना पर सांस्कृतिक मंत्रालय जब यूनेस्को की स्वीकृति दिलवाना चाहता है तो चीन को इसके एमएसआर पर नकारात्मक प्रभाव का संदेह रहता है। सागरमाला परियोजना भारत के बंदरगाहों को उन्नति का स्रोत बनाने की कोशिश है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में सागरमाला पर भावी राष्ट्रीय परियोजना की शुरुआत की जिसमें जहाजरानी मंत्रालय नोडल एजेंसी बनाई गई। इस परियोजना में बंदरगाहों को विकसित करने के साथ उन्हें अंदरूनी इलाकों से जोडऩे का काम भी हो रहा है।
इस तरह से सड़क परियोजनाओं और जल यातायात पर काम हो रहा है। यह भारत के आंतरिक विकास पर केंद्रित है पर इसका झुकाव दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया की ओर भी बढ़ता नजर आता है।
सितंबर 2016 में श्रीलंका के प्रधानमंत्री ने इसे द. एशिया की उन्नति के लिए बड़ा कदम बताया और साथ में सागरमाला परियोजना मे शामिल होने की इच्छा जाहिर की थी। ये दोनों परियोजनाएं भारत को अपने पड़ोसी देशों के साथ सुदृढ़ संबंध बनाने में सहायक हैं।