किसानों के लिए कर्ज माफ़ी पहली बार नहीं हुई है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने वर्ष 2008 में किसानों के 60,000 करोड़ रुपयों के कर्जे माफ़ किए थे। बाद में उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब व कर्नाटक ने किसानों के कर्जों को माफ़ करने की घोषणाएं की। ऐसे लोक लुभावने क़दमों से किसानों का बड़ा भला हो या न हो देश की अर्थव्यवस्था पर इसका दबाव जरूर पड़ता है जिसका खामियाजा आम जन को भुगतता है। इसीलिए ऐसे क़दमों को अर्थशास्त्री ही नहीं कृषि विशेषज्ञ भी उचित नहीं मानते। अध्ययनों में सामने आया है कि ऐसे क़दमों से बड़ी व मध्यम हैसियत के किसान अधिक फायदे में रहते हैं। बैंकिंग विशेषज्ञ मानते हैं कि किसानों के कर्जों का साख चक्र होता है। किसी एक चक्रके दौरान कर्ज माफ़ी होती है तो अगले साख चक्रमें छोटे सीमांत किसानों के लिए कर्ज की मात्रा घट जाती है।
दूसरी तरफ किसानों की कर्ज माफ़ी के समर्थक इसे एक रणनीतिक मुद्दा मानते हैं जिसे रुपये-पैसे के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। वे अमरीकी अर्थव्यवस्था का हवाला देते हैं कि वहां सरकार किसानों को 30 बिलियन डॉलर की सब्सिडी देती है। तो फिर भारतीय किसान की मदद क्यों न की जाय? बात सही है। आज हमारे यहां हालात ऐसे हैं कि खेती के अनिश्चित व्यवसाय में उसे कोई अपना कॅरियर नहीं चुनता। अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी अब घट कर 17-18 प्रतिशत रह गई है। इसलिए गरीबी पर प्रभावी हमला भी कृषि को सुधारने और उसे बढ़ावा देने से ही संभव है। मगर उसका तरीका क्या हो? कोई भी अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री या कृषि विशेषज्ञ कर्ज माफ़ी को इसका बेहतर तरीका नहीं मानेगा। किसान को यदि समय पर बिजली, पानी, बीज और खाद मिल जाए और उसे उसके उत्पादन का लाभकारी मूल्य मिल जाए तो वह सहजता से कर्जा ही नहीं चुका पाएगा बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में प्रमुख भूमिका भी अदा कर पाएगा। मगर सरकारें कृषि में वैसा निवेश नहीं करती जितना अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में करती है। कर्ज माफ़ी जैसे सतही प्रयासों से भारतीय किसान की हालत नहीं सुधरेगी। वह सुधरेगी किसी ठोस नीति और युक्ति से और एक संवेदनशील प्रशासन तंत्र बनाने से।