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अतीत से आगे 

Published: Mar 15, 2015 04:22:00 am

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“अगली गोष्ठी में काव्या जी अपनी कहानी का वाचन करेंगी।”, सर्व सम्मति से निर्णय लिया गया और गोष्ठी समाप्त हो गई।

“अगली गोष्ठी में काव्या जी अपनी कहानी का वाचन करेंगी।”, सर्व सम्मति से निर्णय लिया गया और गोष्ठी समाप्त हो गई। “काव्या जीÓ, डॉ. ललित ने विदा लेते हुए कहा, “अगली गोष्ठी में आपकी सार्थक कहानी सुनने का अवसर मिलेगा।” काव्या ने जैसे असमंजस की स्थिति में उनके निमंत्रण को मौन स्वीकृति दे दी। एक निरर्थक जीवन पर सार्थक कहानी कैसे लिखी जा सकती है? जबकि कहानी की विषयवस्तु स्वयं के जीवन पर आधारित हो। काव्या को लगा मानो परीक्षा की घड़ी आ गई।

महीने में एकबार होने वाली इस गोष्ठी में कोई नामचीन कथाकार नहीं आते थे। बस ऐसे लोग जो केवल स्वांत: सुखाय के लिए सृजन में विश्वास रखते थे। हांं, यह बात और है कि काव्या जी और डॉ. ललित जैसे जाने-माने कथाकार इससे जुड़ गए हैं। ऐसे कथाकार सार्थक सृजन में विश्वास रखते हैं। वरना आज इतर लेखन की भरमार है। 

कुछ हद तक इसे सच माना जा सकता है कि लेखक पैसों और लोगों के दबाव में ऐसा कर रहे हैं। काव्या जैसी कथाकार ऐसा समझने लगी हैं कि साहित्य में समाज को बदलने की क्षमता अब नहीं है। समाज और देश को बदलने वाली शक्तियां दूसरी होती हैं। एक सजग और परिश्रमी लेखक ताउम्र लिखकर भी किसी आदमी के जीवन को सुधार नहीं सकता। इससे बड़ा विरोधाभास क्या होगा कि काव्या जी जैसी लेखिका लेखन की दुनिया में खुद को बलशाली साबित कर चुकी हैं। किंतु वह बाहरी दुनिया में विवश, शक्तिहीन और प्रभावहीन महसूस करती हैं। 

इतने लंबे रचनाकाल में काव्या जी ऐसा करने से कहां बच सकी हैं। उसने जब भी जीवन से जुड़ी सार्थक पहल को चरितार्थ करने के लिए कलम उठाई है, मंजिल तक पहुंचने का साहस नहीं जुटा सकी। हर बार, घर की जरूरतों को मुंह फाड़े सामने पाया। वह जरूरतों और उनकी पूर्ति के बीच महज एक साधन बनकर रह गई। आज काव्या लेखन में अपने अस्तित्व का परचम लहराने के बावज़ूद भी स्वयं अपना अस्तित्व तलाश रही हैं। 

गोष्ठी समाप्त हो गई। घर को सूनेपन ने आ घेरा। वह इस सूनेपन में जीवन से जुड़े सार्थक पहलू तलाशने लगी। वह जूठे बर्तनों को समेटने की रस्म अदायगी में लग गई। कमरे में बिछा कालीन और गलीचा बेतरतीब हो गए थे। मिसेज लक्ष्मी के चार साल के बच्चे ने दो जगह कालीन गीला कर दिया था। वह शहर के मशहूर नाक-कान-गला विशेषज्ञ की पत्नी हैं। 

लेखन उनका शौक है। डॉ. साहब के सहयोग से उन्हें सृजनात्मक बने रहने की प्रेरणा मिलती रहती है। आर. के. श्रीवास्तव और देवदास जी अच्छे लेखक नहीं हैं लेकिन अच्छे पाठक होने का गुण उन्हें इस गोष्ठी में खींच लाता है। वे रसिक श्रोता तो हैं ही, कहानी की समीक्षा भी अच्छी करते हैं। एक आम और रसिक पाठक का प्रतिनिधित्व वे करते हैं। इससे कहानी में निखार लाने में सुविधा होती है। खिड़की के पास, सिगरेट के ऐश ट्रे को उठाते समय वह बरबस मुस्कुरा उठी। 

शर्मा जी अपनी सिगरेट पीने की तलब को रोक नहीं पाते और दो घण्टे की गोष्ठी के दौरान दो-एक बार बकायदा अनुमति लेकर खिड़की के बाहर झांकते हुए सिगरेट फूंक लेते हैं। इसके बाद, जैसे रिचार्ज होकर अपने स्वाभाविक चुटीले अंदाज में आ जाते हैं, “ललित जी, आपने अपनी कहानी के इस स्त्री पात्र का नाम गलत रख दिया है।”

“क्या मतलब?”, डॉ. ललित जैसे ख्यातिलब्ध कथाकार शर्मा जी की टिप्पणी से चौंके। काव्या जी भी शर्मा जी की ओर देखने लगीं। शर्मा जी की आंखों में शरारत खेल रही थी, “इस स्त्री पात्र का नाम काव्या होना चाहिए था।”

एक सामूहिक ठहाके से गोष्ठी और भी अनौपचारिक हो गई थी। डॉ. ललित हल्की मुस्कुराहट के साथ अपनी कहानी का पाठ कर रहे थे। अथाह गहराई में विपुल जलराशि को समेटे समुद्र की सी मर्यादा डॉ. ललित को आम आदमी से खास बना देती है। जिसमें न जाने कितनी नदियां अपनी उच्छशृंखलता भूलकर विसर्जित हो जाती हैं। 

ललित सदेव से ऐसे थे। एकदम शांत, मर्यादित, संवेदनशील और दूसरों की मदद के लिए तत्पर। घर के सूनेपन में रात गहराने लगी। काव्या की पुरानी यादों के पन्ने फडफ़ड़ाने लगे। और समय की गर्द छंटने लगी। उसके जेहन में जीवन का एक-एक सफा स्पष्ट होने लगा। 

“क्या मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूं?, ललित ने कॉलेज के पार्क में तनहा बैठी कामिनी से कहा। ललित उसकी क्लास का सहपाठी था। कोई और होता तो शायद कामिनी उसे अपनी तन्हाई में दखलंदाजी को आड़े हाथों लेती लेकिन ललित के साथ उसने ऐसा नहीं किया। 

हालांकि वह कॉलेज की बिंदास लड़कियों में शुमार मानी जाती थी किंतु ललित के व्यक्तित्व के आगे उसको नतमस्तक हो जाना पड़ता था। पिछले कुछ दिनों में उसके जीवन में जो कुछ घटा उससे उसके जीवन की दिशा ही बदल गई थी। 

एक कार दुर्घटना में उसके पिता इस दुनिया से कूच कर गए थे। कामिनी को याद नहीं पड़ता कि उसकी मां कैसी थी। हां, पिताजी ने कभी मां की कमी का अहसास नहीं होने दिया था। मां तो जैसे उस मनहूस को देखना भी नहीं चाहती थी। इसलिए उसे जन्म देकर चल बसी और अब यह भूचाल। परिस्थितियों ने उसको अचानक बेसहारा कर दिया था। ऐसे में उसी शहर में रहने वाले छोटे मामा उसके सहारा बने। 

“मैं आपके दर्द को समझता हूं कामिनी। ऐसे समय यदि मैं आपकी कुछ मदद कर सका तो अपने आपको खुशनसीब समझूंगा।”, ललित की गंभीरतापूर्ण बातों ने उसे संबल प्रदान किया और वह अपने दर्द ललित से बांटने लगी। एक धीर गंभीर और सुलझे व्यक्तित्व के धनी ललित के मर्यादित व्यवहार से कामिनी की ललित के प्रति विश्वास अंदरूनी प्यार में बदलने लगा। वह कठिन परिस्थितियों में हर समस्या का निदान ललित से लेती थी। छोटी मामी के ताने और चरमराती गृहस्थी को संभालते छोटे मामा के आंसू सब कुछ ललित से छुपा नहीं था। 

एक दिन उसके जीवन में फिर भूचाल आया और छोटी मामी की जिद के आगे वह हार गई। उसे एक बेरोजगार शराबी व्यक्ति के गले मढ़ दिया गया। इस बार भी ललित सहारा बनकर खड़े थे। लेकिन उसका भाग्य और समाज की मर्यादा ने उसे परिस्थितियों का गुलाम बना दिया। वह सब कुछ छोड़कर अपने ससुराल जबलपुर में आ बसी। समय के चक्र में उसके लिए अभी भंवरें बाकी थीं। शादी के छह माह बाद लिवर फेल्योर से उसके पति का देहांत हो गया। अब उसके जीवन में केवल एक सपना शेष था जो उसके पेट में सांसें ले रहा था। घर में विधवा सास के सहारे वह अपने सपनों को साकार करने में जुटी रही।

कागज पर कलम से कहानियां साकार होने लगीं तो उसका नाम बुलंदियों को छूने लगा। काव्या के नाम से वह एक स्थापित कथाकार बन गई। काव्या की बेटी सपना, बीई,एमबीए करके मुम्बई स्थित प्रतिष्ठित मल्टीनेशनल कंपनी में हायर सेलेरीड इंजीनियर बन गई थी। 

जीवन के इस पड़ाव में तूफानों को झेलते काव्या फिर असहाय महसूस कर रही थी। जवान बेटी के हाथ पीले करने की उहापोह में ललित फिर सामने था। एक विचार गोष्ठी में अचानक काव्या की मुलाकात ललित से हो गई थी। ललित अब डॉ. ललित के नाम से ख्यातिलब्ध कथाकार जाने जाते थे। वे अब एक गृहस्थ थे। इधर कामिनी से काव्या तक का सफर जानकर डॉ. ललित आश्चर्यचकित थे। 

वह आज भी काव्या को अंदर तक पढ़ सकते थे। तभी तो ललित ने एक दिन काव्या से ऐसा प्रश्न कर डाला जिसकी आशा उसे ललित से नहीं थी, “काव्या जी अब वो समय आ गया है कि मुझे अपने दिल की बात कह देनी चाहिए।”

काव्या अवाक् ललित के चेहरे की तरफ देखने लगी। ललित कहते जा रहे थे, “अब हमें अटूट बंधन में बंध जाना चाहिए। वरना मैं अपने आपको माफ नहीं कर सकूंगा। अब आपके धैर्य और मेरी मर्यादा की परीक्षा की घड़ी आ गई है।”

तभी दरवाजे की कॉलबेल बज उठी। काव्या की यादों का तारतम्य टूट गया। इतनी रात कौन हो सकता है? उसने बोझिल आंंखें दीवार घड़ी की ओर घुमा दी। फिर तकिए के नीचे डिब्बे में रखी ऐनक को बूढ़ी आंंखों पर चढ़ाया – अब तो सुबह हो चली है,…पांच बज गए… वह मन ही मन बुदबुदाने लगी। वह बिस्तर से उठकर दरवाजे की ओर बढ़ी तो ऐसा लगा कि वह पूरी रात तन्हाइयों मे विचरती रही। शरीर का सामथ्र्य जवाब दे रहा है। उसने दरवाजा खोला, “अरे, सार्थक-सपन तुम दोनों ?”

सार्थक ने प्रवेश करते ही काव्या के पैर छूए। वह निहाल हो गई और स्नेह भरे हाथ सार्थक के बालों में फिरा दिए। फिर अपनी बेटी सपना की आंखों में खुशी के आंसू देखकर पुलकित हो उठीं। 

“हांं, मां हमें कल रात सार्थक के पापा ने फोन किया था कि आप बहुत परेशान हैं और हमें याद कर रहीं हैं।” सपना बोले जा रही थी इसी बीच सार्थक ने बात पूरी करते हुए कहा, “हमें क्यूं, अपनी बेटी सपना को याद कर रहीं थीं। तभी तो मैं सपना को लेकर रात की फ्लाइट से निकल पड़ा।”

“अच्छा किया बेटा, ये ललित जी भी.., काव्या के बूढे हो चले गालों पर मासूमियत खिल गई। कुछ देर बाद सार्थक ने अपने पिता डॉ ललित को फोन पर अपने जबलपुर पंहुचने की सूचना दे दी थी। अलसाया सूरज सुबह के शीतल आकाश में बढ़ रहा था। इधर काव्या, कलम और कहानी एक सार्थक पहल के लिए आत्मसात हो गए थे। उधर किचन से सपना और सार्थक की ठिठोली सुनाई दे रही थी। 
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