कांग्रेस की तरह यहां भी किसानों को मुख्य लक्ष्य बनाया गया है। ग्रामीण विकास पर 25 लाख करोड़ रुपए, 2022 तक किसानों की आय दोगुना, किसान क्रेडिट कार्ड पर 1 लाख रुपए का पांच साल तक कर्ज ब्याज मुक्त, वृद्ध किसानों को पेंशन देना जैसे तमाम ‘लॉलीपॉप’ इस संकल्प पत्र में हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के बावजूद सरकारें अभी तक आम आदमी का जीवन स्तर उठा क्यों नहीं पाईं, उसे आत्मनिर्भर, शिक्षित क्यों नहीं बना पाईं। आज भी देश का किसान ऋण लेने पर मजबूर क्यों है? युवाओं को सामाजिक सुरक्षा, रोजगार क्यों नहीं है? नारी शक्ति क्यों अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है? बराबरी की बात करने वाले राजनीतिक दल क्यों अभी तक संसद में ही स्त्रियों को 33 फीसदी स्थान नहीं दे पा रहे हैं? हर व्यक्ति को पक्का मकान अगले 50 वर्षों में भी मिल जाए तो गनीमत है। निर्यात गिरा है, आयात बढ़ा है। जीडीपी की दर असामान्य है। फिर हम किस मुंह से ऐसे लोक लुभावन वादे कर देते हैं? राहुल गांधी कहते हैं, 72 हजार रुपए साल पांच करोड़ परिवारों की आय सुनिश्चित होगी। आज न्यूनतम मजदूरी पाने वाला 12 हजार कमा लेता है। फिर उसके परिवार की आय शामिल की जाए तो इससे ज्यादा बैठती है, फिर कांग्रेस किसे पैसे देगी? कहां से देगी?
‘ना नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी।’ कहावत तो सभी जानते हैं। पिछले पांच वर्षों में दो करोड़ रोजगार? क्या हुआ? जवाब सबके गोलमोल हैं। अब समय आ गया है जब कानून बनाया जाए कि राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में वही वादे करें, जो वास्तव में पूरे हो सकते हैं। घोषणा पत्रों का सालाना ऑडिट हो और घोषणाओं की बाकायदा जवाबदारी तय हो। वरना वादों-झांसों का दौर हर साल-दर-साल चुनाव में ऐसे ही जनता झेलती रहेगी। और मतदान के बाद ‘सींगों’ की तरह गायब होने वाले नेताओं को ढूंढती रह जाएगी। समय बदलना है तो जवाब मांगिए। ये बचकर न निकल पाएं ऐसे जतन होने चाहिए।