scriptपीढ़ियों का वाहक बीज | Generation Carrier Seeds gulab kothari article | Patrika News

पीढ़ियों का वाहक बीज

locationनई दिल्लीPublished: May 08, 2021 08:04:11 am

शरीर रचना की दृष्टि से पुरुष अग्नि प्रधान और स्त्री सौम्या है। अन्त:दृष्टि से स्त्री पुरुष तथा पुरुष स्त्रैण है। अर्थात् दोनों शरीर पुरुष भी हैं और स्त्री भी हैं। शरीर से पुरुष, पुरुष है, सप्तम धातु शुक्र की दृष्टि से स्त्री है।
प्रकृति में चन्द्रमा को सूर्य की पत्नी माना गया है। सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्रमा प्रकाशित रहता है। नर-नारी में भी क्रमश: इनकी ही प्रधानता रहती है। सूर्य-चन्द्र के योग से ही सम्वत्सर बनता है, इसी से ऋतुओं का जन्म होता है।

पीढ़ियों का वाहक बीज

पीढ़ियों का वाहक बीज

गुलाब कोठारी, प्रधान संपादक पत्रिका समूह

अग्नि-सोमात्मक जगत् में ब्रह्म-माया का विवर्त रूप ही नर-नारी है। अक्षर सृष्टि में कारण रूप में, इन्हीं को योषा-वृषा के नाम से जाना जाता है। वृषा का अर्थ है वर्षण करने वाला यानी कि सोम। योषा का अर्थ है मिश्रित करने वाला अग्नि। सोम जब अग्नि में आहूत होता है तब अग्नि उसे मिश्रित कर निर्माण करने लगता है। चयन (चिनाई) प्रक्रिया शुरू होती है। यह चिति (चिनाई) अग्नि की ही कही जाती है। इससे निर्मित पिण्ड भी अग्नि पिण्ड ही होता है।

सृष्टि प्रक्रिया के संदर्भ में पूर्वी देशों का यिन-यांग का सिद्धांत भी युगल रूप में प्रचलित है तथा पश्चिम का क्रोमोसोम का विवेचन भी ङ्ग तथा ङ्घ रूप में युगल तत्त्व स्वरूप ही है। वहां टेस्ट-ट्यूब-बेबी पैदा होने लगे, किन्तु यह जैविक निर्माण है। वेद, शरीर को भिन्न इकाई के रूप में स्वीकार नहीं करता वरन्, सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया की ही एक कड़ी मानता है। सृष्टि प्रक्रिया में शरीर हेतु हो सकता (सिद्धान्त रूप से तो नहीं भी हो सकता) है, किन्तु कारण कभी भी नहीं हो सकता। क्षर सृष्टि का कारण तो अक्षर सृष्टि में ही रहेगा। अक्षर सृष्टि देव प्राणों पर आधारित रहती है। इसके जनक हैं पितृ प्राण और ऋषि प्राण। इनके सहयोग के बिना देव-अक्षर या क्षर पैदा नहीं हो सकते।

वेद में जीव की उत्पत्ति में सात पितृ-प्राणों का योग प्रमाणित किया है। सात पीढिय़ों के पूर्वजों के अंश स्त्री-पुरुष में सम्मिलित रहते हैं। हमारे अंश भी भावी सात पीढिय़ों तक पहुंचते हैं। स्त्री-पुरुष को इन तत्त्वों का वाहक माना गया है। पुरुष को अग्नि तथा स्त्री को सोम का प्रतीक माना गया है।
गीता में कृष्ण बता रहे हैं-

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति य:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता: ।। (14.4)

‘हे कौन्तेय! समस्त योनियों में जितनी मूर्तियां (शरीर) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि अर्थात् गर्भ है महद्ब्रह्म और मैं बीज की स्थापना करने वाला पिता हूं।’

वस्तुत: पुरुष शरीर स्थित शुक्र संस्था का स्थायी भाव है। बीज को धारण करने वाला स्वरूप है जिसमें सात पीढिय़ों के अंश रहते हैं। यही वृषा तत्त्व है। शुक्र तो मात्र वाहक और संरक्षक का कार्य करता है। स्वयं में बीज नहीं होता। इसी प्रकार शोणित का स्वरूप अस्थायी माना है। धरती रूप है। सन्तान की पहचान बीजी पिता से होती है, मातृभाव (सौम्या) अग्नि में आहूत रहता हुआ गौण ही रहता है। शायद इसीलिए सृष्टि को पुरुष प्रधान मान लिया है। पुरुष शरीर की प्रधानता का भी कोई अर्थ नहीं होता। मूल में तो पुरुष आत्मा का वाचक है। स्त्री-पुरुष दोनों आत्मा के ही रूप हैं। अत: दोनों ही पुरुष हैं। यहां आत्मा से तात्पर्य शुक्रमय महानात्मा है। स्थूल शरीर इस आत्मा की भूमि है। शरीर नर-नारी है, मानव-मानवी है।

प्रकृति में चन्द्रमा को सूर्य की पत्नी माना गया है। सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्रमा प्रकाशित रहता है। नर-नारी में भी क्रमश: इनकी ही प्रधानता रहती है। सूर्य-चन्द्र के योग से ही सम्वत्सर बनता है, इसी से ऋतुओं का जन्म होता है। सम्वत्सर से ही पृथ्वी के जड़-चेतन पैदा होते हैं। स्थूल सृष्टि का कारण अक्षर सृष्टि होती है जो सूर्यगत कही गई है। सूर्य ही अक्षर या देव प्राणों का केन्द्र है, इन्द्र है। देवप्राणों का निर्माण स्वयंभू लोक के ऋषि प्राण तथा परमेष्ठी लोक के पितृप्राण के यजन से होता है। अत: हमारा आत्मा इन लोकों के साथ भी जुड़ा रहता है तथा स्वतन्त्र स्थूल सृष्टि का नियामक भी जान पड़ता है। भृगु-अंगिरा ही योषा-वृषा रूप आगे बढ़ते हैं। ऋषि, पितृ और देव प्राणों से ऋण लेकर ही हम प्राणी वर्ग पैदा होते हैं। तीनों ही अग्नि प्राण हैं-सोम की सहायता से सृष्टिकर्ता बनते हैं, किन्तु सोम की चर्चा कहीं नहीं होती। माया सदा ब्रह्म में लीन रहकर निर्माण करती है। सृष्टि ब्रह्म का ही विवर्त कहलाती है। माया अन्त में ब्रह्म में ही लीन हो जाती है।

शरीर रचना की दृष्टि से पुरुष अग्नि प्रधान और स्त्री सौम्या है। अन्त:दृष्टि से स्त्री पुरुष तथा पुरुष स्त्रैण है। अर्थात् दोनों शरीर पुरुष भी हैं और स्त्री भी हैं। शरीर से पुरुष, पुरुष है, सप्तम धातु शुक्र की दृष्टि से स्त्री है। शुक्र में निहित वृषा प्राण से पुन: पुरुष है। इसी प्रकार स्त्री भी शरीर से स्त्री, शोणित से पुरुष भावात्मक तथा योषा प्राणों से पुन: स्त्री ही है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सन्तान प्राप्ति का कारण स्त्री-पुरुष का मिथुन कर्म मात्र ही नहीं है बल्कि योषा-वृषा का सम्बन्ध मूल है। यदि योषा-वृषा का मेल न हो, या दोनों में से एक प्राण का हनन हो जाए तो मात्र शरीर सम्बन्ध से सन्तान पैदा नहीं हो सकती। योषा-वृषा के मेल से बिना शरीर सम्बन्ध के भी सन्तान उत्पन्न हो सकती है। टेस्ट ट्यूब बेबी इसका उदाहरण है।

पुरुष के शुक्राणु तथा स्त्री के डिम्ब दोनों के शरीर में पंचकोश रहते हैं। पहले अन्नमय कोश दोनों के टकराएंगे। अग्नि प्रकट होगा। सोम यहां आहूत होगा। प्राणमय कोश के माध्यम से मनोमय कोश मिलेंगे। दोनों ऋत रूप हैं, प्रतिबिम्ब की तरह, एकाकार होते हैं। वही मह:लोक है। यहां जल-शुक्र में बुद्बुद् बनता है।

चयनविज्ञान के आधार पर ही इसका स्वरूप उत्तरोत्तर बनता जाता है। पंचाग्नि विद्या से प्राप्त बीज को धारण करने वाला पिता होता है। यह बीज बाहर से आग्नेय तथा भीतर से सौम्य होता है। इस बीज रूप सोम की आहुति माता के रज में होने से संतति का निर्माण होता है। यहां रज व शुक्र दोनों के संयोग का हेतु भी वायु बनता है। यही वायु गर्भधारण के पश्चात् भी गर्भस्थ शिशु का रक्षक होता है। गर्भस्थ शिशु के प्राणात्मक संचरण में सहयोगी यह वायु एवयामरुत् कहलाता है।

गर्भोपनिषद् में इन अवस्थाओं को स्पष्ट रूप से आठ ही भागों में विभक्त किया गया है-कलिलं- बुद्बुद् – पिण्ड – कठिन – शिर – पाद – जठरकटिप्रदेश – पृष्ठवंश – मुखनासिकाश्रोत्रा-जीव से संयुक्त – पूर्णगर्भ। पुरुष के शुक्र व स्त्री के रज के मिलने से द्रवीभूत अवस्था कलिलं कही जाती है। यही कलिलं अवस्था ही सृष्टि का निर्माणात्मक जल तत्त्व है। इस अवस्था में अग्नि, सोम व वायु के संयोग से बुलबुले का निर्माण ही शिशु के आने का प्रथम संकेत है। यह बुलबुला अग्नि का प्रथम संकेत है जो अग्नि चयन से पन्द्रह दिन में पिण्ड रूप में बदल जाता है। तथा पुन: उत्तरोत्तर चितियों से एक माह में कठिन होकर स्थिर हो जाता है।

दूसरे मास में भू्रण के सिर का निर्माण, तीसरे मास में पैरों का, चतुर्थ मास में पेट और कटि प्रदेश का, पंचम मास में रीढ़ की हड्डी, छठे मास में मुख-नाक और कानों का निर्माण होता है। सातवें महीने में उसमें जीव का प्रवेश होता है। इस प्रकार आठवें मास में गर्भ की पूर्णता होने पर नवम मास में वह गर्भ से बाहर आ जाता है। शिशु निर्माण की यह प्रक्रिया नौ मासपर्यन्त चलती रहती है।

सृष्टि की वैज्ञानिकता का अन्य प्रमाण है वृक्ष। वृक्ष से मिलने वाला फल भी आठ अवस्थाओं से गुजरता है। कार्य की परिणिति जिस अवस्था पर्यन्त चले, वही फल कहलाती है। बीज की अंतिम अवस्था फल है। उसमें एक सम्पूर्ण वृक्ष समाहित रहता है। किंतु बीज से वृक्ष की अभिव्यक्ति उचित वातावरण मिलने पर ही संभव रहती है। निर्माण का प्रधान कारक शुक्र (बीज) ही है।
क्रमश:

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो