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आनन्द या धिक्कार !

locationजयपुरPublished: Sep 01, 2019 11:49:11 am

Submitted by:

Gulab Kothari

स्वामी चिन्मयानन्द पर एक छात्रा ने यौन शोषण का आरोप लगाया है। मामला उच्चतम न्यायालय में चल रहा है। फैसला जो भी होगा, होगा। प्रश्न यह है कि क्या संन्यास प्रथा आनन्द लूटने का निर्भय पथ बनता जा रहा है? कितने आनन्द लूटने वाले स्वामी आज जेलों को पवित्र कर रहे हैं !
 

Swami Chinmayanand

Swami Chinmayanand

स्वामी चिन्मयानन्द पर एक छात्रा ने यौन शोषण का आरोप लगाया है। मामला उच्चतम न्यायालय में चल रहा है। फैसला जो भी होगा, होगा। प्रश्न यह है कि क्या संन्यास प्रथा आनन्द लूटने का निर्भय पथ बनता जा रहा है? कितने आनन्द लूटने वाले स्वामी आज जेलों को पवित्र कर रहे हैं! अचानक देश में यह कैसा भूचाल आ गया कि स्वामी लोग श्रद्धायुक्त अनुयायियों के साथ यौनाचार का नया धंधा शुरू कर बैठे। देश की लज्जावान् स्त्री को निर्लज्ज स्वामियों ने लूटना शुरू कर दिया। बापू आसाराम, डेरा सच्चा से लेकर नीचे तक संन्यासी इस होड़ में पड़ गए। कोई भी समझदार आदमी तो एक साथ दो घोड़ों पर सवारी नहीं करेगा।

प्रश्न उठता है कि, वे किसके कहने से संन्यासी बने, क्यों परिवार-गृहस्थी से मुंह मोड़ा? क्या सचमुच उनकों संसार से विरक्ति हो गई थी या बन्धन से छूट कर मुक्त रूप में पशु की तरह जीना चाह रहे थे? इसमें भी किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी। आपत्ति है तो इस बात में कि देश की हजारों साल पुरानी, दिव्य संस्कृति से खिलवाड़ हो रहा है। अपने निजी भोग की वृत्ति को ढकने के लिए संन्यास प्रथा की आड़ ली जा रही है। क्यों नहीं भोग में आकण्ठ डूबने से पहले गृहस्थी के वस्त्र पहन लेते? क्या वे नहीं जानते कि देश के सभी आम और खास लोग हर संन्यासी के पांव छूते हैं। क्या लम्पटी स्वामी लोग समझ पाएंगे कि देशवासियों के मनों पर क्या गुजरती होगी-उनकी करतूतों का जिक्र सुन-सुनकर?

संन्यास तो वैराग्य भाव का प्रतीक है। ये संन्यासी गधे की तरह शेर की खाल पहनकर घूमते हैं। कहीं कोई एक शिकार पकड़ में आया कि पोल खुली। इसका एक बड़ा कारण संतों का राजनीति में प्रवेश भी है जहां सिवा भोग के कुछ और है ही नहीं। कहीं मंत्री पद या महत्वपूर्ण स्थान मिल जाए तो भोग तो थाली में सजकर आ जाएगा। आ भी रहा है। सब ऐसे नहीं हैं, पर संख्या में कम भी नहीं हैं। चारों ओर इस भोग का ही अट्टाहास गूंज रहा है। इतिहास उठाकर तो कोई देखे। कहीं संत भाव नहीं। सत्ता सुख चाहिए। फिर हर मर्यादा की नई परिभाषा हो जाती है। जनता भी कम नहीं। वोट देकर चुनती है उनको। ‘चढ़ जा बेटा सूली पर, भली करेंगे राम।’ भेद खुल जाने पर वही जनता जूते मारती है। घर तो जनता के ही उजड़ते हैं, सारी उठा-पटक में। कहे किसको? इस सबमें बहुत बड़ा हाथ राजनेताओं का भी है जो वोटों के लालच में, इनकी चरण पादुकाओं को अपने सिर पर रखने से नहीं चूकते। सभाओं में जा-जाकर इनकी झूठी वाहवाही करते हैं। इससे आम आदमी इन बहरूपियों के जाल में फंस जाता है। जो बट्टा लगता है वो धर्म पर लगता है।

हमारे यहां कहावत है-‘जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन।’ इन सारे काण्ड़ों के पीछे यही ‘अन्न’ एकमात्र कारण है। सामान्य राजनेता भी लिप्त रहें तो कोई बुरा नहीं मानता। किन्तु योगी को तो मानसिक रोगी मानना पड़ेगा। समाज भी दोषी है और सत्ता भी। जो संस्थाएं संन्यासी को दीक्षा देती हैं, वे क्योंकर स्वीकृति देती हैं, मठ बनाने की, धन संग्रह की, सत्ता से जुड़ जाने की। मायाभाव तो कामना का प्रसार है। जनता बाध्य करे चोला बदलने को अथवा दीक्षा देने वाले। संन्यास में रहकर सत्ता में क्यों? क्या जनता अपने संन्यासी का, जनप्रतिनिधि के रूप में अपमान सह लेगी?
जिस प्रकार घोषित अपराधियों पर चुनाव लडऩे का निषेध है, संन्यासियों पर भी निषेध होना चाहिए।

बाद में दुर्घटना होने पर हम भी धिक्कारें और देश हमको भी धिक्कारे, तो प्रतिष्ठा तो सबकी गिरती है। विदेशों में हमारी संन्यास प्रथा पहले ही धन संग्रह के लिए बदनाम है। यौनाचार का मार्ग तो दैत्यों को भी शोभा नहीं देता। कोई स्त्री-पुरुष कुछ वर्ष संत रहकर पुन: यौनाचार में लिप्त हों, तो सम्पूर्ण की जीवनशैली ही कठघरे में आ जाती है। सजा मिले-न मिले, प्रमाण मिले-न मिले, यह अर्थहीन है, सार्वजनिक रूप से चर्चा में आ जाना ही संन्यासी की मौत है। जन मानस की परिपक्वता ही निर्णायक होगी।

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