सैकड़ों साल यह देश आजादी के लिए तरसता रहा, लम्बे संघर्ष के बाद लोकतन्त्र की स्थापना की गई। तानाशाही से देश मुक्त हुआ। आज फिर अचानक आपातकाल का नाम सुनाई दे पड़ा।
सैकड़ों साल यह देश आजादी के लिए तरसता रहा, लम्बे संघर्ष के बाद लोकतन्त्र की स्थापना की गई। तानाशाही से देश मुक्त हुआ। आज फिर अचानक आपातकाल का नाम सुनाई दे पड़ा।
क्योंकि लोकतन्त्र के सत्ता पक्ष ने विपक्ष का सम्मान करना छोड़ ही नहीं दिया, बल्कि अपमान करना अनिवार्य मान लिया गया। केवल बहुमत के कारण। वरना, क्या अन्तर है पक्ष-विपक्ष में? दोनों पक्षों के विधायक एक ही जनमानस चुनता है।
किसी भी विधायक का अपमान मतदाता का अपमान है। जब-जब सत्तापक्ष को बड़ा बहुमत प्राप्त हुआ है, उसने मतदाता को ही ठेंगा दिखाने का प्रयास किया है। सन् 75 के आपातकाल के पीछे भी शक्ति तो बहुमत की ही थी। इसलिए लालकृष्ण आडवाणी के मुंह से जाने-अनजाने ‘आपातकाल‘निकलना निरर्थक नहीं है।
जब केन्द्र सरकार घोर भ्रष्टाचार के ज्वलन्त मुद्दों को दरकिनार करने को तैयार हो सकती है, जम्मू-कश्मीर में अपने वादों के आगे घुटने टेक सकती है, राम मन्दिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता को छोड़ सकती है, अपनी चुनाव घोषणाओं से पलट सकती है तब क्या यह लोकतन्त्र में आस्था का प्रमाण माना जाएगा? साथ ही भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं पर विशेष कृपा दिखाई दे रही है।
जिस इन्दिरा गांधी को पूरा देश आपातकाल के लिए कोसता रहता है वह लोकतन्त्र एवं देश के विद्वानों के लिए भी संवेदनशील थीं, जो भाव आज देखने को नहीं मिलता। आज तो केवल हां भरने वाले चाहिए। विरोध के स्वर आपातकाल की शुरूआत देख सकते हैं। आडवाणी का स्वर विरोधी था।
होना तो यह चाहिए था कि प्रथम दृष्टया लिप्तता सामने आते ही सुषमा स्वराज, वसुंधरा, स्मृति ईरानी, पंकजा मुंडे के खिलाफ कानूनी कार्रवाई होती। ये ही घटना किसी ‘आप‘ के नेता के साथ घटी होती तो हो सकता है, उसके खिलाफ अब तक देशद्रोह का मुकदमा भी दर्ज हो गया होता।
आज जिन 21 विधायकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज है क्या उनके अपराध इन के अपराधों से बड़े थे? क्या जनता इस निर्णय का स्वागत करेगी? केन्द्रीय खुफिया एजेन्सियों के पास कौनसी जानकारियां नहीं हैं? कहां खो गया वह नारा ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा?‘ कैसे जनता का विश्वास फिर लौटेगा कि ‘अच्छे दिन आने वाले हैं?‘
मैं पाठकों को राजस्थान की एक घटना याद दिलाना चाहता हूं। जगन्नाथ पहाडिय़ा मुख्यमंत्री थे। पुस्तक मेले के उद्घाटन समारोह में प्रसिद्ध कवियत्री महादेवी वर्मा उनके साथ मंच पर थी। पहाडिय़ा जी ने यह कह दिया मैं नहीं जानता छायावाद क्या होता है? महादेवी वर्मा क्या लिखती हैं? टिप्पणी तूल पकड़ गई।
बबेला मच गया। आन्दोलन चल पड़ा। इस दौरान जयपुर यात्रा पर आए अटलबिहारी वाजपेयी ने भी यह कहकर पहाडिय़ा की खिल्ली उड़ाई कि, यदि महादेवी वर्मा का छायावाद पहाडिय़ा के समझ में नहीं आए तो इसमें महादेवी वर्मा का क्या दोष है? नतीजा यह निकला कि इन्दिरा गांधी ने पहले ही निष्क्रियता के आरोप झेल रहे जगन्नाथ पहाडिय़ा से तुरंत इस्तीफा मांग लिया।
यह भी इसी लोकतन्त्र की बात है। जब बिना किसी भ्रष्टाचार के आरोपों के उच्च मापदण्डों को बनाए रखने के लिए मुख्यमंत्री से इस्तीफा लिया गया। भ्रष्टाचार या राजनीतिक दुराचरण के आरोपों पर तो पिछले 68 सालों में देश में दर्जनों मंत्री-मुख्यमंत्रियों की कुर्सी गई है।
आदर्श घोटाले में तो कांग्रेस के विलासराव देशमुख और अशोक चव्हाण दो मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे हुए। उनसे पहले ए. आर. अंतुले, आर. गुण्डुराव, एस. बंगारप्पा, सुखराम, ठाकुर रामलाल जैसे कितने ही नाम हैं।
भाजपा ने भी ऐसे ही आरोपों में बी. एस. येद्दिरयुरप्पा और बंगारु लक्ष्मण जैसे अनेक नेताओं से इस्तीफे लिए हैं। अब केन्द्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्री को केन्द्र सरकार की क्लीन चिट ने यह तो कह ही दिया कि भाजपा का कोई नेता भ्रष्ट हो ही नहीं सकता।
अत: उसे सात खून माफ हंै और रोजाना किसी न किसी को माफी मिलती ही जाती है। तब आडवाणी कहां गलत हैं? एक तरफा निर्णयों को ही तो आपातकाल कहते हैं। समय जल्दी ही नतीजे भी दिखा देगा।
सत्ता का अहंकार यथार्थ को कभी स्वीकार नहीं करता। छोटे से शासन काल में भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ जिस तेजी से गिरा है वह मतदाताओं के गले भी नहीं उतरता। परिस्थितियां नहीं बदलीं तो भाजपा के भावी राजनीतिक जीवन पर हर मतदाता अंगुली उठाएगा। पार्टी एवं देशवासियों के हृदय में बढ़ते जा रहे अविश्वास के आगे नये सिरे से और सम्पूर्ण विनम्रता के साथ नतमस्तक होने की आवश्यकता है। वैसे तो समय अपना रास्ता निकाल ही लेगा।
एक निष्पक्ष सम्पादक के नाते मेरे मन में एक टीस है, जितने लोग कार्यालय में मिलने आते हैं उनके मनों में भी उपरोक्त प्रश्र उबाल खा रहे हैं। मैं उनको शांत नहीं कर पा रहा हूं। जिन अपेक्षाओं से केन्द्र में सरकार को लाए थे वे धूमिल होती दिखाई पड़ रही हंै। अच्छा होगा कि केन्द्र सरकार नए सिरे से अपने घोषणा पत्र को क्रियान्वित करने में लग जाए।
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