scriptमुश्किल मुद्दों का श्रेष्ठ हल- सुशासन | Good governance is the solution of every problem | Patrika News

मुश्किल मुद्दों का श्रेष्ठ हल- सुशासन

locationजयपुरPublished: Aug 02, 2019 09:36:10 pm

कश्मीर के राजनीतिक और आतंककारी घटनाओं के विश्लेषकों का मानना है कि पिछले 18 महीनों में राज्यपाल सत्यपाल मलिक के नेतृत्व में केन्द्रीय शासन के ‘सुशासन’ के लिए जी-तोड़ प्रयास करने के अच्छे नतीजे सामने आ रहे हैं। सबसे पहला असर पंचायती राज व नगरीय निकाय के आमतौर पर शांतिपूर्ण और सफल चुनावों के रूप में सामने आया। जम्मू-कश्मीर में पंचायती राज को सशक्त करने के लिए पंचायती राज कानून में संशोधन किए गए।

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पिछले 72 साल में यह आठवां मौका है, जब जम्मू-कश्मीर में केन्द्रीय शासन चल रहा है। अन्य राज्यों की तरह आवश्यकता होने पर, यहां सीधे राष्ट्रपति शासन नहीं लग सकता। एक सरकार का शासन समाप्त होने पर, अगले चुनाव तक यहां पहले छह महीने के लिए राज्यपाल शासन लागू होता है। उसके बाद भी चुनी हुई सरकार की सत्ता में आने की स्थिति नहीं होती तो छह महीने के लिए राष्ट्रपति शासन शुरू हो जाता है, जिसे छह-छह महीने करके बढ़ाया जा सकता है।

पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और भाजपा के गठबंधन वाली सरकार ने जम्मू-कश्मीर में एक मार्च, 2015 को सत्ता संभाली थी। पीडीपी के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद के निधन के बाद 7 जनवरी, 2016 से 88 दिन तक राज्यपाल शासन चला और फिर वापस पीडीपी-भाजपा गठबंधन ने महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व में सत्ता संभाल ली। भाजपा के समर्थन वापस लेने के बाद महबूबा की सरकार ढह गई और 20 जून 2018 से प्रदेश में पुन: राज्यपाल शासन लागू हो गया। राज्यपाल सत्यपाल मलिक के नेतृत्व में अभी जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन चल रहा है।

जम्मू-कश्मीर में 72 वर्षों में से सबसे ज्यादा करीब सवा चालीस वर्ष तक नेशनल कॉन्फ्रेंस ने राज किया। इसमें मुख्य रूप से शेख अब्दुल्ला, उनके पुत्र डॉ. फारूक अब्दुल्ला और पौत्र उमर अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता संभाली। कांग्रेस ने लगभग 14 वर्षों तक सरकार चलाई। केन्द्रीय शासन पौने दस साल रहा और 6 वर्ष पीडीपी व पौने दो वर्ष अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने सरकार का नेतृत्व किया। 1990 में नेशनल कॉन्फ्रेंस के पतन के बाद जब केन्द्रीय शासन लगाया गया तो अलगाववाद और आतंकवाद तेजी से बढऩे लगा। हर साल एक हजार से ज्यादा सुरक्षाकर्मी और नागरिक मारे जाने लगे। 1995-96 में तो मृतकों की संया 1700 को पार कर गई। 2008 के बाद जाकर इस संख्या में गिरावट आनी शुरू हुई, फिर भी 200 से 300 नागरिक या सुरक्षाकर्मी हर साल जान गंवाते रहे। यह सिलसिला अब तक जारी है। फर्क इतना आया है कि पीडीपी-भाजपा सरकार और उसके बीच में या बाद में चले केन्द्रीय शासन के दौरान इसमें कुछ तेजी आ गई। इस साल फरवरी में हुए पुलवामा हमले में एक साथ चालीस जवान शहीद हुए, लेकिन उसके बाद के महीनों में राज्य में कोई बड़ी आतंककारी घटना नहीं हुई। 30 से ज्यादा युवक आतंककारी समूहों को छोडक़र आ गए।

कश्मीर के राजनीतिक और आतंककारी घटनाओं के विश्लेषकों का मानना है कि पिछले 18 महीनों में राज्यपाल सत्यपाल मलिक के नेतृत्व में केन्द्रीय शासन के ‘सुशासन’ के लिए जी-तोड़ प्रयास करने के अच्छे नतीजे सामने आ रहे हैं। सबसे पहला असर पंचायती राज व नगरीय निकाय के आमतौर पर शांतिपूर्ण और सफल चुनावों के रूप में सामने आया। जम्मू-कश्मीर में पंचायती राज को सशक्त करने के लिए पंचायती राज कानून में संशोधन किए गए और 19 विभागों और अनेक महत्वपूर्ण योजनाओं की निगरानी की जिमेदारी पंचायतों को सौंपी गई। वित्त कमीशन और अन्य केन्द्रीय योजनाओं से पंचायतों को भारी-भरकम बजट मिलने लगा। एक-एक सरपंच के पास 50 लाख से एक करोड़ रुपए का बजट सीधे तौर पर आ गया। राज्यपाल शासन के दौरान 50 से ज्यादा सुधारवादी कानून बनाए गए। सडक़, पुल, औद्योगिक पार्क, बिजलीघर, जलापूर्ति योजनाएं, बांध निर्माण जैसे आधारभूत ढांचे के कई काम हाथ में लिए गए। जम्मू क्षेत्र के विजयपुर व कश्मीर क्षेत्र के अवन्तिपुर में एम्स की आधारशिला रखी गई तथा पांच नए मेडिकल कॉलेजों को शुरू किया गया। पर्यटन, खेलकूद, पर्यावरण, समाज कल्याण, रोजगार, उद्यमिता विकास, सीमा क्षेत्र विकास आदि कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं छोड़ा गया, जिसमें बड़ी योजनाएं शुरू नहीं की गई हों।

तमाम सकारात्मक कदम तेजी से उठाए जाने के बावजूद नेशनल मीडिया में राज्य के केवल नकारात्मक समाचार छाए रहने से यहां आम अवाम में भी रोष है, तो सामान्य स्थिति की बहाली में जी-तोड़ तरीके से जुटे हुए प्रशासनिक अधिकारी भी खुश नहीं हैं। उनका कहना है कि राज्य के हालात के बारे में समय-समय पर जारी होने वाली रिपोर्टों में से मीडिया चुन-चुन कर वे ही बिन्दू उछालता है, जो प्रदेश की गलत छवि पेश करते हैं। प्रदेश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, पर उनकी उपलब्धियां सामने लाने में नेशनल मीडिया कभी रुचि नहीं लेता। इससे जनता, खासतौर से मुख्यधारा में आ रहे युवाओं में उनके प्रति रोष बढ़ रहा है। कश्मीर घाटी का सूफीवाद, गाय के मांस और शराब की खुली बिक्री पर सामाजिक पाबंदी जैसे धवल पक्षों को कोई उजागर नहीं करता। केसर, सेब, अखरोट, हस्तशिल्प, चावल आदि से जुड़ी सफलता की कहानियां मीडिया के पक्षपात के कारण देश के सामने नहीं आ पाती।

विशेषज्ञ लोग मानते हैं कि अनुच्छेद 35-ए जैसे विवाद ऐसे हैं, जिन्हें बार-बार उछाला जाता है, जिससे मुख्यधारा में आने की कोशिश करने वालों के कदम ठिठक जाते हैं। उनके अनुसार ये विवाद ऐसे हैं, जिन्हें सुलझाना ज्यादा कठिन नहीं है, बल्कि सही समय आने पर एक दिन में सुलझ जाएंगे। अभी दूसरी चुनौतियां ज्यादा बड़ी हैं। कश्मीरी पंडितों संबंधी समस्या का भी समाधान ज्यादा मुश्किल नहीं लगता, लेकिन उससे पहले जरूरी है शांति, स्थिरता और समृद्धि। इन लक्ष्यों को पा लिया तो हर मुश्किल से मुश्किल मुद्दा सुलझता चला जाएगा।

विभागों में लगाए मजबूत अफसर
जम्मू-कश्मीर में सुशासन की गति तेज करने के लिए राज्यपाल के सलाहकारों के रूप में चुनिंदा अधिकारी नियुक्त किए गए। प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्य कर चुके बीवीआर सुब्रह्मण्यम को राज्य का मुख्य सचिव बनाकर लाया गया। कश्मीरी मामलों के विशेषज्ञ माने जाने वाले मनोज कुमार द्विवेदी को वन, पर्यावरण, जनसपर्क विभागों का सचिव नियुक्त किया गया। शासन और प्रशासन की जड़ों तक पहुंच चुके भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए गृह विभाग, भ्रष्टाचार निरोधक निदेशालय जैसे विभागों में मजबूत अफसरों को लगाया गया। राज्य के इतिहास में पहली बार आयकर विभाग ने प्रभावशाली लोगों के ठिकानों पर छापे मारे और करोड़ों रुपए की हेराफेरी के दस्तावेज जब्त किए।

कार्रवाई से मच गई खलबली
जम्मू-कश्मीर बैंक को कालेधन की कमाई और सफाई का बड़ा अड्डा माना जाता है। इसकी याति यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक के निर्देशों को भी यहां कचरे के डिब्बे में डाल दिया जाता है। इस बैंक के कप्यूटरों से भी महत्वपूर्ण सूचनाएं जुटाई गईं। इन कार्रवाइयों से जम्मू-कश्मीर में सत्ताबल से वारे-न्यारे करने वाले परिवारों में खलबली मची हुई है।

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