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रैंकिंग अच्छी, गुणवत्ता आधार पर संदेह

Published: Apr 05, 2017 04:08:00 pm

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प्रतिस्पर्धा वास्तव में नकारात्मक दबाव की तरह काम करती है। होना यह चाहिए कि नंबरों के खेल की बजाय कुछ ऐसा हो कि एक विश्वविद्यालय को अन्य विश्वविद्यालय की शैक्षणिक गुणवत्ता का पता जरूर लगना चाहिए।

प्रमुख शिक्षाविद्

विश्वविद्यालयों की रैंकिंग जारी करने के पीछे क्या वास्तविक कारण रहे हैं, इसकी सही-सही जानकारी तो मुझे नहीं है। जिस प्रकार से इन रैंकिंग को लेकर विभिन्न प्रकार की टिप्पणियां होती हैं, उन्हें सुनकर और पढ़कर ऐसा लगता है कि सरकार का इरादा विश्वविद्यालयों पर प्रतिस्पर्धा के माध्यम से गुणवत्ता सुधार के लिए दबाव बनाना है।
देश के विश्वविद्यालय भी विश्व स्तर के हो सकें। शैक्षणिक संस्थानों के बीच गुणवत्ता सुधार के लिए रैंकिंग यदि जारी की जाती है तो यह कोई बहुत बुरी बात भी नहीं कही जा सकती। ऐसा इसलिए क्योंकि इसका उद्देश्य अच्छा ही है। आखिर शिक्षा जगत से जुड़ा कौन व्यक्ति नहीं चाहेगा कि देश के उच्च शिक्षण संस्थानों का नाम दुनिया के शिक्षण संस्थानों में सम्मान के साथ लिया जाए। 
शायद सरकार प्रतिस्पर्धा की शुरुआत के जरिए खास तौर उन शिक्षण संस्थानों पर गुणवत्ता सुधार के लिए दबाव बनाना चाहती है जिनके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से बजट राशि आवंटित होती है। सवाल यही उठता है कि क्या शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता का सही मूल्यांकन कर पाना संभव है? और उसे इस तरह की रैंकिंग के माध्यम से अभिव्यक्त कर पाना संभव है? लेकिन एक बात जो संदेह उत्पन्न करती है, वह है उच्च शिक्षण संस्थान खासतौर पर विश्वविद्यालयों के कार्य का आकलन। 
दरअसल, विश्वविद्यालयों का आधारभूत काम होता है ज्ञान का निर्माण और ज्ञान का फैलाव करना। मेरा सवाल यही है कि रैंकिंग के लिए जिस प्रकार से आकलन होता है, क्या उसमें विश्वविद्यालय के इस मूलभूत कार्य को शामिल किया जा रहा है? पश्चिमी देशों में जब शिक्षण संस्थानों का आकलन किया जाता है तो उसमें शोध कार्य और शोध कार्य के प्रतिष्ठित जर्नलों में प्रकाशन पर भी ध्यान दिया जाता है। 
इसके अलावा इन जर्नलों में प्रकाशित शोध की आलोचनाओं पर भी ध्यान दिया जाता है। यह भी गुणवत्ता के आकलन में काम आता है। एक बात तो यही है कि क्या हमारे यहां हुई रैंकिंग में इस तरह से भी संस्थानों का आकलन किया गया है? 
दूसरी बात यह है कि केवल भारत ही नहीं पश्चिमी देशों में भी प्रतिस्पर्धा के दबाव में लेख लिखे और प्रकाशित होते हैं। पश्चिमी देशों में यह दबाव शिक्षा जगत में बने रहने और उन्नति करने के लिए सहन करना होता है। कई बार देखने में आता है कि छपने के दबाव में किया गया लेखन गुणवत्ता की दृष्टि से जल्दी में लिखा गया लगता है। 
इस कारण वह जीवन की वास्तविक समस्याओं से हटकर केवल हवा-हवाई ही रह जाता है। यह विमर्श के बारे में विमर्श बन जाता है जिंदगी की वास्तविकता के बारे में नहीं। ऐसा मालूम होता है कि प्रतिस्पर्धा और छपने के दबाव में अन्य अकादमिक जिम्मेदारियों से दूरी बढ़ जाती है। 
वास्तविक जीवन से उनका सरोकार दैनंदिन जीवन से कम ही होता है। भारत में कई बार ऐसा देखने में आता है कि शोध कार्य बहुत ही जल्दबाजी में तैयार किए गए हैं। ऐसा अनुभव होता है कि प्रतिस्पर्धा की स्थिति में अन्य अकादमिक जिम्मेदारी से दूरी बढ़ती जा रही है।
विश्वविद्यालय को बेहतर बनाने के लिए आर्थिक पक्ष हावी होता चला जाता है। उच्च शिक्षण संस्थानों के कार्य में एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि वंचित वर्ग को भी बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराई जाए। भारत में होता यह है कि टॉप विद्यार्थियों को तो सभी पढ़ाने और बेहतर करने के तैयार हैं और ऐसे विद्यार्थी खुद भी बेहतर प्रदर्शन करते ही हैं। लेकिन, शिक्षा के संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि वंचित वर्ग के लिए क्या किया जा रहा है। 
इसे ऐसे समझें कि जो विद्यार्थी 40 फीसदी अंकों में शुमार थे, यदि उन्हें किसी विश्वविद्यालय में तैयार करके 60 फीसदी अंकों तक पहुंचाया जाता है, तो उस विश्वविद्यालय की रैंकिंग क्या होगी? किसी उच्च शिक्षण संस्थान में पढ़ाई में अधिक अंक वाले विद्यार्थी तैयार होते हैं लेकिन वंचितों को कम स्थान मिलता है तो उसे क्या रैंकिंग मिलेगी? 
वास्तव में इस मामले में पढ़ाने के कौशल को भूमिका महत्वपूर्ण होती है। मेरा प्रश्न यह है कि प्रतिस्पर्धा के दौर में पढ़ाने के इस कौशल का भी आकलन किया जाता है या नहीं? मैं समझता हूं कि पढ़ाने के इस कौशल को रैकिंग तय करते समय न भारत और न ही विदेश कोई स्थान दिया जाता है। 
हकीकत यह है कि प्रतिस्पर्धा वास्तव में नकारात्मक दबाव की तरह काम करती है। होना यह चाहिए कि नंबरों के खेल की बजाय कुछ ऐसा हो कि एक विश्वविद्यालय को अन्य विश्वविद्यालय की शैक्षणिक गुणवत्ता का पता जरूर लगना चाहिए। विश्वविद्यालयों के बीच की रैंकिंग प्रतिस्पर्धा का उपयोग अकादमिक संस्कृति तैयार करने के लिए होना चाहिए। 
इसके लिए केवल संसाधन नहीं बल्कि वातावरण तैयार करना चाहिए। राजनीति और सत्ता से दूर रहकर अकादमिक रुझान पैदा करने की जरूरत है। प्रतिस्पर्धा वास्तव में गुणात्मक चीज को मात्रात्मक में बनाने का केवल भ्रम ही पैदा करती है। विश्वविद्यालयों में होने वाले काम की गुणवत्ता का सही-सही मूल्यांकन कर पाना संभव नहीं है। 
(अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बेंगलूरू में शिक्षा विभाग के प्रमुख) 

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