भक्ति आंदोलन के आकाश में गोस्वामी तुलसीदास का स्थान ध्रुव
तारे के समान है। उनकी रचना “रामचरितमानस” हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। यह जीवन के
विविध आयामों की विवेचना कर हमें सही मार्ग पर चलने की दिशा प्रदान करती है।
श्रीमद्भगवद्गीता के समान हरेक प्राणी को तत्व ज्ञान से आलोकित करती है। समन्वय के
प्रतीक गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के जरिए रामकथा को जन-जन तक पहुंचाया।
समाज को एक सूत्र में पिरोने में इस ग्रंथ की महती भूमिका है। तुलसीदास के कृतित्व
पर विशेषज्ञों के विचार आज के स्पॉटलाइट में…
डॉ. कैलाश कौशल सह
आचार्या, हिन्दी विभाग, जयनारायण व्यास विवि, जोधपुर
लोकनायक तुलसीदास का
संपूर्ण साहित्य संस्कृति के बहुआयामी फलक पर लोक-हित एवं समन्वय की विराट चेष्टा
से युक्त है। मानव मूल्यों का संरक्षण और मानवतावाद का चिर-प्रतीक्षित स्वरूप सजीव
करना तुलसी के समन्वय का मूलमंत्र था, इसीलिए “रामचरितमानस” को लोगों ने धर्मग्रंथ
से अधिक पढ़ा और जिया। “सियराम मय सब जग जानी, करऊं प्रनाम जोरि जुग पानी” कहने
वाले तुलसीदास ने मानस में सीता-राम की कथा के साथ ही सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन
जीने की आचार-संहिता भी दी।
भारतीय ही नहीं समूचे विश्व-पटल में नारी की स्थिति
पुरूष के साथ सहयोगी भाव की रही है। श्रद्धा-विश्वास की साक्षात् प्रतिमूर्ति नारी
जीवन के समतल में पीयूूष-स्त्रोत सी प्रवाहमान होती हुई उसे सुंदर ढंग से जीने
योग्य बना देती है। “रामचरितमानस” में नारी लोकमंगल विधायिका होकर सशक्तसामाजिक
भूमिका का निर्वहन करती है। समाज की निर्मात्री और गृह-साम्राज्ञी स्त्री मध्ययुगीन
सामाजिक बुराइयों तथा धार्मिक आडंबरों के कारण समाज-परिवार में किंकरी, परिचारिका
और दासी बनकर रह गई थी जिसे तुलसी ने सीता के रूप में “उjव-स्थिति-संहारकारिणी
क्लेशहारिणी सर्वश्रेयस्करी” बनाकर पूजनीय एवं जगज्जननी बना दिया। तुलसी ने स्त्री
को कभी भी भक्ति-मार्ग की बाधक नहीं माना बल्कि उनके अनुसार नारी प्रेम की
चरम-उत्कर्ष स्थिति में भक्ति का साक्षात् अवतार बन जाती है। शबरी भक्ति का
सर्वश्रेष्ठ नारी रूप है।
गोस्वामी तुलसीदास को विदित है कि सृष्टि के निर्माण
में सर्वत्र पुरूष और प्रकृति की लीला सक्रिय है। स्त्री पुरूष की सक्रियता एवं
विधायी शक्तिकी प्रेरणास्त्रोत है, इसके अभाव में शिव भी निष्क्रिय हैं अत: मानस
में वे स्त्री-पुरूष के युग्म स्वरूप को प्रतिष्ठित करते हैं। रामचरितमानस में
प्रकृति-शक्तिको मातृशक्ति के रूप में अभिव्यक्ति मिली है। “जाकी रही भावना जैसी”
के अनुसार भक्तिके प्रसंग में ही नहीं बल्कि जीवन के क्षेत्र में भी हम अपनी भावना
के अनुरूप ही मानव-मात्र में उसके दर्शन करते हैं।
जो उसके विद्या, सुमति, श्रद्धा
रूप को चुनता है वह उसके मातृस्वरूप के दर्शन करता है और जो अज्ञान के वशीभूत होकर
उसे वासनापूर्ति का साधन एवं भोग्या मानता है वह अपने विनाश को स्वयं आमंत्रित करता
है। कुछ दिनों बाद आश्विन मास में हम नवरात्र में शक्ति आराधना करेंगे, कन्याओं के
भोजन एवं चरण-प्रक्षालन के मूल में है नारी के प्रति आदर-भाव। घर-परिवार में
कन्याओं का यह आदर सभी के मानस में नारी के प्रति सम्मान की प्रतिष्ठा करना है।
लेकिन आधुनिक युग में भौतिकता की चकाचौंध और भोगप्रधान दृष्टि के कारण आए दिन
कन्याओं से घिनौने कृत्यों में वृद्धि हो रही है।
रामचरितमानस मे नारी के लौकिक
और अलौकिक दोनों ही रूप परिलक्षित होते हैं। एक ओर माता पार्वती और माता जानकी तो
प्रणम्य हैं ही पर दूसरी ओर कौशल्या, सुमित्रा, सुनयना, कैकेयी, तारा, मैना,
मंदोदरी आदि के पारिवारिक और सामाजिक चरित्र हैं, जिनके माध्यम से तुलसीदास के
नारी-चितंन को समझा जा सकता है। कौशल्या तो अपने पूर्व जन्म शतरूपा के रूप से ही एक
विवेकपूर्ण, प्रेमाकुल, मंगलमय और करूणाद्रü व्यक्तित्व लेकर प्रकट होती हैं, जिनके
चरित्र द्वारा तुलसी नारी-चरित्र के उस स्तर को संकेत करते हैं, जो भगवान की भी मां
के रूप में है। वनवास राम को मिला पर लक्ष्मण जैसे पुत्र द्वारा भाई का साथ देने पर
सुमित्रा के मातृ-ह्वदय की व्यथा का अनुमान लगाना भी अति दुष्कर है। इन दोनों
स्त्री पात्रों ने कहीं भी अपनी विवेक-दृष्टि नहीं खोई। मंदोदरी अपने पति रावण को
अंहकार से मुक्त कर सन्मार्ग पर लाने की चेष्टा करती है।
भत्र्सना तो तुलसीदास
कुनारी और कुपुरूष की करते हैं। छल-छk, लोभ-लालसा और कामांध पूर्ण चरित, पुरूष हो
या स्त्री, दोनों के लिए यहां उपेक्षा भाव है। परनारी में आसक्त पुरूष (रावण) का
विनाश अवश्यंभावी है और पर-पुरूष में आसक्त नारी (शूर्पणखा) के निर्लज्ज कामोeारों
पर कवि ने नारी-निंदक उक्तियां कहीं हैं। शूर्पणखा असुर समाज से संबंधित है अत:
वहां कोई वर्जनाएं नहीं। उसके जैसी स्वच्छंद आचरण वाली एवं यौन-उन्मुक्त व्यवहार
वाली çस्त्रयां संपूर्ण समाज के लिए ही अकल्याणकारी हैं।
तुलसीदास के
नारी-चिंतन के संदर्भ में जिन दो पंक्तियों का उल्लेख सर्वत्र और बार-बार होता है।
ये पंक्तियां हैं- ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।। उक्त सभी
फटकार के अधिकारी हैं, जब वे अपनी मर्यादा का उल्लंघन करें। वस्तुत: यह प्रसंग राम
और समुद्र के बीच संवाद का है जहां समुद्र अपने अमर्यादित आचरण के लिए श्रीराम से
क्षमा याचना करता है। समुद्र की इस उक्तिको तुलसी का नारी निंदक प्रसंग मानने वाले
निस्संदेह भ्रम-बुद्धि के शिकार हैं। मानस की दो अर्द्धालियों के आधार पर तुलसी को
नारी-विरोधी कहना सर्वथा अनुचित है। तुलसी के नारी पात्रों में एक लोकद्रष्टा और
रक्षक कवि निवास करता है। तुलसीदास की चेतना विशेष प्रकार के स्त्री-चरित्रों, जो
स्वस्थ समाज के निर्माण में शिल्पी की भूमिका में हों, उन्हें अपना आदर्श मानती थी।
स्त्री को समाज-निर्मात्री के पद पर प्रतिष्ठित करने, पुरूषों की çस्त्रयों के
प्रति सामन्ती एवं भोगवादी मनोवृत्ति पर अंकुश लगाने एवं महिला सशक्तीकरण के लिए
“रामचरितमानस” आज भी प्रासंगिक एवं महत्वपूर्ण है।
विश्वमंगल कवि
तुलसीदास
प्रो. रमाकान्त पांडेय निदेशक, मुक्त स्वाध्याय पीठ, राष्ट्रीय
संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली
तुलसीदास इतने सौभाग्यशाली कवि है कि उन्हें
विद्वान् तो जानता ही है, एक अनपढ़ भी जानता है और उन पर उतनी ही श्रद्धा रखता है।
लोक में तुलसी की वाणी पत्थर की लकीर है, जो तुलसी ने कह दिया, उससे बड़ा प्रमाण
कुछ और हो नहीं सकता। तुलसी विश्वमंगल और जन-मन के कवि हैं। उन्होंने उपासना और
साहित्य को एकीभूत किया तथा उसे जनमानस की श्रद्धा का विषय बनाया। भारतीय संस्कृति
अध्यात्म और उपासना की संस्कृति है। तुलसी ने वेद, उपनिषद्, पुराण, महाकाव्य,
खंडकाव्य, दर्शन इत्यादि समस्त वाङ्मय का अध्ययन कर उसे अपनी कविता में लोक के
स्वभाव के अनुरूप उतारा। शास्त्र की सार्थकता रूक्षता में नहीं कोमलता में होती है
और यह कोमलता कविता में तभी उतरती है जब यह कवि का स्वभाव बन जाता है। तुलसी का
साहित्य शास्त्र के इसी स्वरूप की परिणति है।
महात्मा नरहर्यानंदाचार्य के
शिष्य तुलसीदास वेदान्त शास्त्र के पण्डित हैं। शास्त्रीय सिद्धान्तों को लोकोन्मुख
बना कर प्रस्तुत कर देना उनकी विलक्षणता है। गूढ़तम विषय तुलसी की लेखनी का
संस्पर्श पाकर स्पष्ट हो जाता है। रामचरितमानस, विनयपत्रिका आदि में उनके पाण्डित्य
की पराकाष्ठा और निरूपण का वैशिष्ट्य देखा जा सकता है। निर्गुण और सगुण ब्रह्म का
निरूपण करते हुए वे कहते हैं –
नेति नेति जेहि बेद निरूपा।
निजानन्द
निरूपाधि अनूपा।।
तुलसी वेदांत के गूढ़ रहस्य को “राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी”
तथा ईश्वर अंस जीव अविनासी, “राम सच्चिदानन्द दिनेसा” और “सोई सच्चिदानंद घन रामा”
कह कर स्पष्ट कर देते हैं। तुलसी के राम लोक के राम हैं, लोक उनमें एकीभूत है।
उन्होंने राम के ऎसे चरित्र को प्रस्तुत किया है जिससे राम सबके अपने राम बन गए,
उनके राम मात्र सुखी के ही राम नहीं बल्कि दु:खी के भी राम हैं-जिन्हहिं परम प्रिय
खिन्न। राम लोक के आराध्य तो हैं ही तुलसी ने उनका इतना लौकिकीकरण कर दिया है कि
राम कभी पुत्र के रूप में, कभी जामाता के रूप में, कभी बन्धु और सखा के रूप में
प्रत्येक व्यक्ति के साथ रहते हैं।
हर घर में जन्म लेने वाला पुत्र राम है, पिता
दशरथ है और माता कौसल्या तथा वह नगर अयोध्या बन जाता है। लोक में पुत्र के
जन्मोत्सव पर गाए जाने वाले लोकगीतों में हर घर में रामजन्म की आहट सुनाई देती है।
इसी प्रकार पुत्री सीता से अभेद रखती है। राम और सीता से प्रत्येक पुत्र और पुत्री
का अभेद जन्म और विवाह दोनों स्थलों पर अभिव्यक्त होता है। प्रत्येक पिता दशरथ और
जनक दोनों है, नगर अयोध्या और जनकपुरी दोनों है। तुलसी की यही विशेषता है कि
उन्होंने राम को जनमानस में बसाकर उसमें समस्त शास्त्रीय तत्वों को घटाया। ब्रह्म
की सच्चिदानन्दरूपता पंडित को समझ में आ सकती है किन्तु लोक उसे नहीं समझ सकता।
लेकिन तुलसी जब उसे राम में घटाते हैं तो एक निरक्षर भी उसके मर्म तक पहुँच जाता
है।
उपनिषदों में निरूपित ब्रह्म की जगत्कारणता को तुलसी सहजता से राम में
आरोपित कर प्रस्तुत करते हैं-जेहि सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा। समग्र
तुलसी साहित्य शास्त्रीय तत्वों की अभिव्यक्ति है। ऎसी अभिव्यक्ति जो जनमानस में
रची बसी है और जनमानस उसमें रचा-बसा है। रामचरितमानस काव्य कम शास्त्र ज्यादा है।
वह जन जन को प्रकाश प्रदान करता है। आज विश्व भौतिकता की पराकाष्ठा को लाँघ रहा है,
हमारी सांस्कृतिक मर्यादाएं टूट रही हैं, माता पिता का तिरस्कार हो रहा है, लोग
एक-दूसरे का संकोच छोड़कर केवल पेट भरने में लगे हैं, सभ्यता असभ्यता से पराजित हो
रही है, ऎसे में तुलसी का साहित्य हमारा महान् मार्गदर्शक बन सकता है।
त्याग,
तपस्या, पितृभक्ति आदि के प्रतिरूप तुलसी के राम किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के
राम नहीं, वह एकता, अखण्डता, राष्ट्रभक्ति के प्रतीक हैं, इसलिए सबके राम हैं, सबके
आराध्य हैं। लोक श्रुति की जगह तुलसी को प्रमाण मानता है और तुलसी श्रुति को।
श्रुति के रहस्य को तुलसी जानते हैं किन्तु लोक तुलसी को जानता है। तुलसी शास्त्र
को अपनी कविता में उतार कर लोक के आस-पास की चीज बना देते हैं और उनकी कविता
शास्त्र बन कर लोक का मार्गदर्शन करती है, इसीलिए वह विश्वमंगल के लिए, मानव मंगल
के लिए उपयोगी है।
सर्वजनहिताय लेखनी
अजहर
हाशमी संस्कृतिविज्ञ
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस मानवीय मूल्यों के
मंडप में अन्त्योदय का अनुष्ठान है। सौहार्द की स्याही से अंकित अपनत्व के
अनुच्छेदों में, सर्वोदय का संविधान है। रामचरितमानस यानि वसुधैव कुटुम्बकम् में
पूरा विश्वास। तुलसीदास कहने को भले ही “स्वान्त: सुखाय” कह रहे हों लेकिन यह सच है
कि उनकी लेखनी सर्वजनहिताय की धुरी पर ही घूमती है। आदर्श राम को यानि मानव मूल्यों
को ही चूमती है। जिसकी लेखनी मानवीय मूल्यों का मंत्रोच्चार करती हो, परोपकार की
पैरवी करती हो, दुश्मनी का दलदल सुखाती हो, द्वेष का दावानल बुझाती हो, कलह का
कीचड़ हटाती हो, कटुता की कालिख मिटाती हो, सद्भाव के सुमन खिलाती हो, सहिष्ण्ुाता
की सुगंध फैलाती हो, अपनत्व की अलख जगाती हो, चिन्तनयुक्त और चैतन्य दिखती हो,
भ्रातृत्व के भाष्य लिखती हो ऎसी लेखनी का हर शब्द समाज के उद्धार के लिए होता है
और वह रचनाकार लोकमंगल का कारक होता है।
तुलसीदास लोकमंगल के ध्वजवाहक हैं।
उनकी लेखनी का हर शब्द सौहार्द का संदेश वाहक है। तुलसीदास के धीरोदात्त नायक
मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की राज व्यवस्था सामाजिक सौहार्द और भाईचारे का
ताना-बाना ही थी। राम के बाल्यकाल से लेकर सिंहासन के त्याग तक और वनवास से लेकर
लंकाकांड तक जो भी कथा है, उसमें भाईचारा, प्रकृति-पर्यावरण की रक्षा,
दलितों-आदिवासियों के साथ समभाव, पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता, वन्य जीवों के लिए
दया, नारियों का सम्मान, ऋषियों-मुनियों के प्रति आभार पग-पग पर परिलक्षित होता है।
तुलसीदास अपनी लेखनी से जो राम-काज करते हैं, वह राम के शक्तिशील सौंदर्य की
व्याख्या के साथ राम के चिन्तन- चरित्र-चेतना का निरूपण भी है और मर्यादा का
विश्लेषण भी।
दशरथ के द्वारा राम के राज्याभिषेक की घोषणा पर कैकयी ने कलह कर
दिया। परिणामस्वरूप राम को वन जाने के लिए दशरथ ने भारी मन से आदेश दिया। राम की
सत्ता के प्रति निर्लिप्तता और सिंहासन त्याग का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है
कि जैसे ही राम को वनगमन का आदेश मिला, उन्होंने तुरंत राज्याभिषेक के लिए हुए
अलंकरणों तथा वस्त्रों को वैसे ही उतार दिया जैसे तोता अपने पुराने पंख उतार देता
है या फैंक देता है। ऎसा करने के बाद राम वन को वैसे ही चल दिए जैसे पथ में पथिक
वृक्षों-वस्तुओं को दरकिनार करके चल देता है। तुलसीदास के शब्दों में-कीर के कगार
ज्यों नृपचीर विभूषण उत्पम अंगनि पाई। राजीव लोचन राम चले, तजि बाप को राज बटाऊ की
नाई”।
राम के द्वारा एक पल की देर किए बिना सिंहासन का त्याग और वह भी इसलिए कि
कैकयी ने अपने पुत्र भरत के लिए राज मांगा था, यह राम के भ्रातृप्रेम का
सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, जिसका आज तक कोई सानी नहीं है। आज के दौर में सत्ता और
सिंहासन पर बने रहने के लिए क्या-क्या “हथकंडे” नहीं अपनाए जाते? तुलसीदास के राम
का सिंहासन त्याग का संदेश है। हकीकत में राम उपदेश नहीं, संदेश है।
राम
व्यक्ति नहीं विचार है। राम वर्ण नहीं, संस्कार है। राम उन्माद-विवाद नहीं, संवाद
है। राम समाज के लिए प्रेरणा है। राम नारा नहीं, चेतना है। राम जाति नहीं,
ज्योत्स्ना है। राम को संकीर्ण दृष्टि से नहीं, विस्तृत दृष्टि से देखना चाहिए।
तुलसीदास के राम मानवीय मूल्यों के संरक्षक-संवाहक-संवर्धक होने के कारण ही तो
आदर्श हैं। रामचरितमानस में तुलसीदास ने जिस रामराज्य का वर्णन किया है, उसकी खास
बात है-बयरू न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई। रामराज्य में न तो किसी से
कोई वैर करता है और न ही विषमता। इस राम राज्य की स्थापना की भारत को आज तक
प्रतीक्षा है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक स्वामी रामानंदाचार्य की परंपरा
के तुलसीदास जाति-पांति से ऊपर भक्ति को मानते हैं जो रामराज्य की सबसे बड़ी
विशेषता है। इसी खासियत को महात्मा गांधी लोकतंत्र में स्थापित करना चाहते थे।