आज मीडिया में सूचना दी थी कि कल से कुछ छूट मिलेगी-लॉकडाउन में। उद्योग, खनन (बजरी भी) सहित श्रम आधारित कार्यों को प्राथमिकता मिल सकती है। बस घुंघरू बज उठे। आज से ही टोल लागू हो जाएगा। देने की सूझती नहीं, लेने की फितरत है। वो भी उन्हीं से जिनसे तनख्वाह मिलती है। विद्युत विभाग और भी आगे। पहले तो कानून का डर दिखाया कि उद्योगों का फिक्स चार्ज रद्द नहीं होगा। फिर जब दिल्ली ने कह दिया, तब भी गलियां निकाल रहे हैं। किस्तों को स्थगित करने की बात कही, तब भी ब्याज का खंजर तो लटका ही दिया। क्या छोड़ा? इस बात का प्रमाण है कि जनता को मजबूरी में मदद भी नहीं करेंगे, किन्तु डण्डा दिखाते रहेंगे। उद्योग बन्द होने की चिन्ता उनकी नहीं है। हमारी वसूली कम नहीं होनी चाहिए। राज्य सरकारों को आगे आकर निर्णय करना चाहिए कि जितना उपभोग किया, उतना बिल बनेगा। वरना, सरकार की राहत की सारी गतिविधियों पर प्रश्न चिन्ह लगेगा। आम उपभोक्ता जिनके घर बन्द रहे, सडक़ों पर रहे, उनके बिजली-पानी के बिल भी माफ होने चाहिए। जरूरत पड़े तो नियमों में संशोधन किए जाएं।
प्रश्न केवल वर्तमान परिस्थिति से निपटने का नहीं है, मानसिकता का है। एक कहावत है कि ‘शहर बसा नहीं, मांगने वाले पहले ही आ गए’। ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों की आज छवि यह बन गई है कि उन्हें वेतन भी चाहिए, रिश्वत भी चाहिए और दलाली भी। यह छवि विकसित देश को आगे नहीं ले जा सकती। समय के साथ नहीं बदले तो समय बदल देगा। आज संवेदना पहली आवश्यकता है। केवल अर्थप्रधान भाषा पथरीली होती है। सरकार को मानवीय दृष्टिकोण अपनाना ही पड़ेगा। हजारों-करोड़ के बजट बना दिए राहत के नाम पर, और कुछ सौ-दो सौ करोड़ के लिए कानून का डण्डा। व्यावहारिक नहीं है। पहले सबको खड़ा होने में मदद करें, फिर भले पूरी उम्र बांटे और खाएं!
भीतर झांककर देखेंगे तो सरकारों और नेताओं की तंग-दिली के दर्शन हो जाएंगे। आज नेता व्यापारी है, देश को कुछ देने की हैसियत ही नहीं रखते। आज की स्थिति में स्वयं हर काम से हाथ झाड़ रहे हैं, खुद जनता से धन मांग रहे हैं। केन्द्र अलग, राज्य सरकारें अलग। सरकार स्वयं हर तरफ से टैक्स बढ़ा रही है, बजट भी देने का भाव दिखा रही है, किन्तु पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में, पलायन करते लोगों को खाना बांटते हुए समाज के लोग ही दिखाई देते हैं। कुछ राज्य सरकारों ने पुलिस के जरिए खाना-सामग्री बांटने का आग्रह किया है, ताकि सरकार का काम भी रिकॉर्ड पर आ सके। गरीब को राशन कितना पहुंचा, इसके उत्तर तैयार हैं। तैयारियां नहीं हैं। सरकार उदारवादी दिखाई देना जरूर चाहती है, किन्तु जनता के सिर पर।
आप कर्मचारियों का वेतन नहीं काटेंगे, उनकी छंटनी नहीं करेंगे। आप अपना उद्योग बन्द कर दें, वह मंजूर है। सरकार जनता से छीनने पर उतारू कैसे हो सकती है। आप भूखे रहें, व्यापार बन्द कर दें, किन्तु कर्मचारी को भी खिलाएं और सरकार को भी। वाह रे लोकतंत्र!
इसका असर क्या होगा, सरकारों ने शायद यह नहीं सोचा। जनता का सरकारों, नीति निर्माताओं से विश्वास ही उठ गया। इस आदेशात्मक एकपक्षीय प्रक्रिया को लोकतंत्र भी नहीं कहा जाएगा। कई संस्थान तो दैनिक मजदूरों को छोड़ चुके हैं। वे विभिन्न प्रदेशों की सीमाओं पर बैठे हैं। उनमें से अधिकांश काम पर लौटने के पहले घर जाना चाहेंगे। पूरे देश में फसलों की कटाई चल रही है। स्थानीय मजदूरों की भी लगभग ऐसी ही स्थिति रहेगी। अनुमान से अधिक समय लगेगा, उद्योगों को पुन:शुरू करने में।
दूसरा पहलू है सरकारी एवं बैंकों का भुगतान। यदि सरकार बिजली के फिक्स चार्जेस जैसे मुद्दों पर अड़ी रही अथवा स्थगन पर ब्याज को लेकर अड़ी रही, (रह तो सकती है, किन्तु हालत देखकर पुनर्विचार करे, न करे) तो उद्योगों को कच्चा माल खरीदने के लिए नए सिरे से उधार लेना पड़ेगा। पुराने उधार की किस्तें भी कोई बैंक बिना ब्याज स्थगित करने को तैयार नहीं है। यह लूटने की मानसिकता कही जाती है। जनता के लिए तो ‘गरीबी में आटा गीला’ हो रहा है।
यही स्थिति अनुबन्धित कर्मचारियों की है। सरकार अपना सारा कामकाज बिना स्थायी भर्ती के चला रही है। पांच माह में हटा देगी। एक माह बाद उसी को पुन:संविदा पर रख लेगी। वर्षों निकल जाते हैं। तब उसे निजी कंपनियों पर यह दबाव बनाने का अधिकार कहां है कि अपने कर्मचारियों को नहीं हटाएं। इसका बड़ा नुकसान यह हो गया कि एक ओर अनुबन्धित कर्मचारी घर बैठ गए, दूसरी ओर प्रभावशाली तथा पहुंच वाले उद्योगपतियों ने छंटनी कर डाली। सौहार्द के स्थान पर द्वेष का वातावरण पैदा हो गया। मानो सरकार मेरी नहीं, अंग्रेजों की ही चल रही है।
जनता को चाहिए कि गरीबों को खाना भी खिलाए, उनकी सेवा भी करे और सरकारी कोष में भी मुक्त हस्त से देना चाहिए। सामाजिक संस्थान भी जुटें इस कार्य में।