scriptGovernment concerns in changing cinema in the new year | नए साल में बदल रहे सिनेमा में सरकार के सरोकार | Patrika News

नए साल में बदल रहे सिनेमा में सरकार के सरोकार

Published: Jan 08, 2023 07:36:24 pm

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Patrika Desk

उम्मीद करते हैं कि एनएफडीसी नए बदलावों के साथ सरकार और सिनेमा के संबंध और भी प्रासंगिक व जनोपयोगी बनाने में समर्थ होगा। वास्तव में कला के क्षेत्र में जड़ता के लिए कोई स्थान नहीं है। आप प्रासंगिक बना रहना चाहते हैं, तो बदलाव के लिए, नवोन्मेष के लिए कदम बढ़ाने ही होंगे।

नए साल में बदल रहे सिनेमा में सरकार के सरोकार
नए साल में बदल रहे सिनेमा में सरकार के सरोकार
विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक

नए साल की सुबह सिनेमा के जानकारों, सिनेमा के विद्यार्थियों और युवा फिल्मकारों के लिए एक बड़े बदलाव के साथ हुई। सूचना प्रसारण मंत्रालय की अधिसूचना के अनुसार नए साल की पहली तारीख से फिल्म्स डिवीजन, बाल चित्र समिति, राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार और फिल्म समारोह निदेशालय का विलय राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) में कर दिया गया। यह अलग बात है कि सिनेमा की दुनिया में आए इस बड़े बदलाव को सुर्खियां नहीं मिलीं, बावजूद इसके इस बदलाव के दूरगामी प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में सिनेमा में राज्य के हस्तक्षेप को दर्शक ही नहीं, अमूमन फिल्मकार भी सेंसर बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन तक ही सीमित मानते हैं। इसका मुख्य कारण शायद राज्य द्वारा संचालित सिनेमा पर केंद्रित संस्थाओं में वर्षों तक नवोन्मेष का अभाव रहा है। समय के साथ सिनेमा की तकनीक से लेकर सिनेमा के व्यवसाय तक के तौर-तरीके बदलते रहे, लेकिन ये संस्थाएं एक अजब सी जड़ता और दोहराव की शिकार रहीं।
जाहिर है कि 1948 में स्थापित 'फिल्म्स डिवीजनÓ जैसी संस्था समय के साथ अप्रासंगिक होती चली गई। फिल्म्स डिवीजन को ही जवाबदेही सौंपी गई थी कि वह देश भर के थिएटरों में 15 राष्ट्रीय भाषाओं में हर शुक्रवार को एक वृत्तचित्र या एनिमेशन फिल्म या समाचार आधारित फिल्म प्रदर्शन के लिए जारी करे। सिंगल थिएटर के दर्शक फिल्म शुरू होने के पहले चलने वाली न्यूज रील को भूले नहीं होंगे। उस दौर में सरकारी योजनाओं , उद्घाटनों, प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं को आमजन तक पहुंचाने में न्यूज रील की उपयोगिता होगी, लेकिन आज लाइव के दौर में न्यूज रील के अप्रासंगिक होने के बाद फिल्म्स डिवीजन नई भूमिका के लिए तैयार होते नहीं दिखा। ऐसा ही कुछ 'बाल चित्र समितिÓ के बारे में कहा जा सकता है, जो 1955 में अपनी स्थापना के बाद से ही अपनी प्रासंगिकता साबित करने में विफल रही। कुछ फिल्में बनीं, कुछ फिल्म महोत्सव हुए, लेकिन बाल चित्र समिति की बनी कोई भी फिल्म हमारे बचपन की स्मृतियों में कायम हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। आज भी बच्चों को मनोरंजन की खुराक विदेशी कार्टूनों से ही मिलती है।
सवाल यह है कि विलय के बाद क्या ये सारे काम बंद हो जाएंगे। यदि सिर्फ एक संस्था राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार को भी देखें, तो ऐसा लगता है नहीं, क्योंकि विलय के बावजूद राष्ट्रीय फिल्म विरासत मिशन को सफल बनाने की जवाबदेही उसी के पास रहेगी, जो दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म संरक्षण योजना मानी जा रही है, जिसके अंतर्गत 2200 फिल्मों को डिजिटलाइज्ड कर सुरक्षित किया जाना है।
इस विलय से उम्मीद की जा सकती है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय दोहरावों से मुक्त होकर सिनेमा के क्षेत्र में अपनी भूमिका का बेहतर निर्वहन कर सकेगा। दोहराव को इस एक बात से ही महसूस किया जा सकता है कि फिल्म समारोह निदेशालय सिनेमा के क्षेत्र में संपूर्ण योगदान के लिए जिस व्यक्ति को दादा साहब फाल्के से सम्मानित कर चुका होता है, उसी व्यक्ति को सिर्फ वृत्तचित्र में योगदान के लिए फिल्म्स डिवीजन लाइफ टाइम अवार्ड से सम्मानित किया जाता है। उम्मीद करते हैं कि एनएफडीसी नए बदलावों के साथ सरकार और सिनेमा के संबंध और भी प्रासंगिक व जनोपयोगी बनाने में समर्थ होगा। वास्तव में कला के क्षेत्र में जड़ता के लिए कोई स्थान नहीं है। आप प्रासंगिक बना रहना चाहते हैं, तो बदलाव के लिए, नवोन्मेष के लिए कदम बढ़ाने ही होंगे।
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