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मूर्तियों की राजनीति

प्रतिमाएं बनें और लगें, इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन कोई प्रतिमा कब और कहां लगे, इस संबंध में कोई ठोस नीति जरूर बननी चाहिए।

Apr 05, 2019 / 02:35 pm

dilip chaturvedi

Statue politics

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सरकारी खर्च पर मूर्तियांं लगाई जाएं या नहीं लगाई जाएं, इसको लेकर सवाल कोई आज पहली बार खड़े नहीं हो रहे। आजादी के बाद से ही सत्ता मेंं जो भी पार्टियां रहीं, उन्होंने अपनी-अपनी पसंद के नेताओं और दूसरे महापुरुषों की प्रतिमाएं लगाने में रुचि ली। बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती के सुप्रीम कोर्ट को दिए गए ताजा हलफनामे ने इस बहस को और आगे कर दिया है। उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती के लखनऊ और नोएडा के उद्यानों में बसपा के चुनाव चिह्न हाथी की विशालकाय प्रतिमाओं के साथ-साथ काशीराम, डॉ. बीआर आम्बेडकर व खुद की प्रतिमाएं लगाने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। मायावती ने अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल में इन दो पार्कों में करोड़ों रुपए खर्च कर ये प्रतिमाएं लगवा दी थीं। पहले सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मूर्तियों पर हुए खर्च को मायावती को अपने पास से सरकारी खजाने में अदा करना चाहिए। हैरत की बात यह है कि अब कोर्ट को दिए हलफनामे में मायावती ने कहा है कि प्रतिमाएं लगाने में प्रक्रिया का पालन किया गया था। उन्होंने यह तक कहा कि इन्हें लगाकर जनता की इच्छा का सम्मान किया गया।

हकीकत यह है कि देश में इस तरह की मूर्तियां लगाने को लेकर आज तक कोई ठोस नीति बनी ही नहीं है। सत्ता में चाहे कोई भी दल आए, वह अपने पसंदीदा नेताओं और दूसरे महापुरुषों की प्रतिमाएं लगवाने में जुट जाता है। कहां और किसकी प्रतिमा लगेगी, इसमें सत्ता में रहने वाले अपना नफा-नुकसान जरूर देखते हैं। जब ऐसी प्रतिमाएं राजनीतिक प्रचार-प्रसार का साधन बनने लगें, तो और चिंता होनी ही चाहिए। देश भर में महापुरुषों की प्रतिमाएं लगाई गई हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या गांधी-नेहरू-सुभाष तथा शहीद भगत सिंह की प्रतिमाएं लगाने मात्र से ही उनके आदर्शों का अनुसरण संभव है। बसपा ने अपने चुनाव चिह्न को लेकर प्रतिमाओं की राजनीति की तो दूसरे दलों ने भी अपने पसंदीदा नेताओं की प्रतिमाएं पार्क- चौराहों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर लगवाने में कोई कोताही नहीं बरती। देश भर में इस बात पर बहस होती रहती है कि मूर्तियों के नाम पर खर्च किए जाने वाली रकम को शिक्षा या चिकित्सा जैसे कामों में खर्च किया जाना चाहिए। मायावती ने भी सुप्रीम कोर्ट को दिए अपने हलफनामे में इसे बहस का विषय बताते हुए कहा कि कोई अदालत इसे तय नहीं कर सकती।

मायावती ने भले ही यह सफाई दी है कि लोगों को प्रेरणा दिलाने के लिए ये स्मारक बनवाए गए। हाथियों की मूर्तियों को तो उन्होंने वास्तुशिल्प की बनावट मात्र बताया और तर्क दिया कि ये राजनीतिक दल बसपा का प्रतिनिधित्व नहीं करते। देखा जाए तो देव प्रतिमाओं को छोड़ दें तो हर प्रतिमा के पीछे किसी राजनीतिक दल की सियासत छिपी होती है। गुजरात में सरदार पटेल की मूर्ति बनवाने के बाद भाजपा ने इसे खूब जोर-शोर से प्रचारित किया कि पटेल के साथ कांग्रेस ने न्याय नहीं किया। अब अयोध्या में भगवान राम की प्रतिमा बनाने की तैयारी है। प्रतिमाएं बनें और लगें, इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन किसी राजनीतिक मकसद को लेकर ऐसा किया जाए तो उसे किसी भी सूरत में उचित नहीं कहा जा सकता। इस संबंध में कोई ठोस नीति जरूर बननी चाहिए।

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