बात यहीं नहीं रुकती। यदि आप सातवें वेतन आयोग में 23 फीसदी की वृद्धि से संतुष्ट नहीं हैं तो आगामी 15 अगस्त का इंतजार करिए। सरकारी कर्मचारियों को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री इस बार केंद्रीय कर्मचारियों से वित्त मंत्री के किए वादे को पूरा करते हुए वेतन आयोग की सिफारिशों के पार जाकर वेतन वृद्धि की घोषणा करेंगे। उम्मीद यह भी की जा रही है कि अवकाश प्राप्ति की आयुसीमा बढ़ाकर 62 वर्ष कर दी जाएगी।
इस विषय पर काफी बहस है कि सातवें वेतन आयोग में की गई वेतन वृद्धि की सिफारिशों का अर्थव्यवस्था को कैसा लाभ पहुंचेगा, जिसे सरकार ने पिछली तारीख से लागू करने को मंजूरी दी है। इस दरियादिली के बावजूद कुछ सरकारी कर्मचारी इस इजाफे को ऊंट के मुंह में जीरा बता रहे हैं तो कुछ की प्रतिक्रिया यह कि जैसा पैसा देंगे वैसे ही कर्मचारी मिलेंगे – गोया उन्हीं कर्मचारियों को ज्यादा वेतन देने पर वे ईमानदार लोकसेवक बन जाएंगे।
वेतन वृद्धि से सरकार की जो लागत बढ़ी है, उससे नई सरकारी भर्ती में सुस्ती आई है और अधिकतर महकमे जरूरत से कम कार्मिकों पर चल रहे हैं। मसलन, राजस्व संग्रहण महकमे में 45.45, स्वास्थ्य विभाग में 27.59, रेलवे में 15.15 और गृह मंत्रालय में 7.2 फीसदी कर्मचारी कम हैं। ये आंकड़े इस तंत्र की खामियों को आईना दिखाते हैं। ज्यादा वेतन अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद है, यह दलील भी भ्रष्ट सोच को दर्शाती है। इस तरह तो और ज्यादा वेतन वृद्धि से जीडीपी में भी और ज्यादा वृद्धि देखने को मिलती। एक बार सड़क, ऊर्जा संयंत्रों, स्कूलों-अस्पतालों के रूप में उन अवसंरचना के बारे में सोचें जिन्हें पैसे की जरूरत है। क्या ये क्षेत्र जीडीपी नहीं बढ़ाते हैं?
पिछली वेतन वृद्धि से केंद्र, राज्यों और उनके सार्वजनिक उपक्रमों में काम करने वाले कुल दो करोड़ 30 लाख सरकारी कर्मचारियों को लाभ मिला था। उद्योग व बैंकिंग के जानकारों को उम्मीद थी कि वेतन वृद्धि और पूंजीगत व्यय को सरकारी प्रोत्साहन, अर्थव्यवस्था को आठ फीसदी या इससे अधिक के स्तर पर ले जाने में सक्षम होंगे। केंद्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन में औसतन 23.5 फीसदी के इजाफे ने वेतन पर सरकारी खर्च 1.14 लाख करोड़ रुपए बढ़ा दिया। यह तब है जबकि 64.08 करोड़ भारतीय यूएनडीपी द्वारा तय की गई गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। हम सभी को ऐसे में एक सवाल पूछना चाहिए कि यह वृद्धि किसकी कीमत पर है? अरुण जेटली का बार-बार इसे बतौर उपलब्धि गिनवाना वैसे ही है जैसे परिवार का मुखिया घर के बढ़ते हुए बच्चों के दूध में कटौती कर अपने शराब-धूम्रपान का खर्च बढ़ा ले।
देश में प्रशासन के तीनों स्तरों को मिलाकर देखें तो कुल 1.85 करोड़ लोग सरकारी नौकरी करते हैं। केंद्र में 34 लाख और सभी राज्य सरकारों को मिलाकर 72.18 लाख सरकारी कर्मचारी हैं। अर्धसरकारी एजेंसियों में 58.14 लाख लोग रोजगाररत हैं। स्थानीय स्तर पर केवल 20.53 लाख सरकारी कर्मचारी हैं जबकि आम नागरिकों से सर्वाधिक संवाद इसी स्तर पर होता है।
सवाल उठता है कि क्या हमें सरकार का बोझ झेलना पड़ रहा है। वास्तव में ऐसा नहीं है। ध्यान से देखें तो भारत में हर एक लाख नागरिकों पर 1622.8 सरकारी कर्मचारी हैं। इसके उलट अमेरिका में यह आंकड़ा 7681 है। केंद्र सरकार के लिए यह आंकड़ा 257 तो संयुक्त राज्य की फेडरल सरकार के लिए 840 है। अब राज्यों पर आएं। हर एक लाख नागरिकों पर बिहार में 457.60, मध्यप्रदेश में 826.47, उत्तर प्रदेश में 801.67, ओडिशा में 1191.97, छत्तीसगढ़ में 1174.62, गुजरात में 826.47 और पंजाब में 1263.34 सरकारी कर्मचारी हैं। इस लिहाज से संकटग्रस्त राज्यों की स्थिति अच्छी है। मिजोरम, नगालैंड, जम्मू-कश्मीर और सिक्किम में यह संख्या ज्यादा है। सिक्किम को छोड़ दें तो अन्य कोई भी राज्य अंतरराष्ट्रीय स्तरों के करीब भी नहीं ठहरता।
साफ है कि अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में सरकारी कर्मचारियों की संख्या काफी कम है। मतलब यह कि गरीबी दूर करने के लिए जरूरी शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सेवाओं आदि प्रावधानों के लिए कर्मचारियों का टोटा है। ऐसे में हम सरकारी कर्मचारियों की वेतन वृद्धि कर उपभोग बढऩे की उम्मीद पाले हुए हैं, ताकि जीडीपी में भी इजाफा हो। यह शेर की सवारी करने जैसा है। हालांकि इससे उतरना अब मुश्किल नजर आता है।
मोहन गुरुस्वामी
नीति विश्लेषक
नीति विश्लेषक