scriptसैन्य छावनियों के अस्तित्व पर संकट के मायने | Government is considering to eliminate military cantonments | Patrika News

सैन्य छावनियों के अस्तित्व पर संकट के मायने

locationनई दिल्लीPublished: Jan 15, 2021 08:39:38 am

– सेना के लिए संसाधनों में कमी करते जाना ‘न्यू नॉर्मल’- छावनियों में परिवार को सुरक्षित छोड़ सीमा पर डटे रहते हैं जवान, ये नहीं रहीं तो वे किसके भरोसे परिवार को छोड़ऩा सुरक्षित मानेंगे ?- सैन्य छावनियों को खत्म करने पर विचार कर रही है सरकार

मानवेन्द्र सिंह (पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता)

मानवेन्द्र सिंह (पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता)

मानवेन्द्र सिंह (पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता)

प्रधानमंत्री कार्यालय ने सैन्य छावनी संचालक मंडलों से सुझाव आमंत्रित किए हैं कि इन छावनियों को समाप्त करने को लेकर उनकी क्या राय है? देशभर में 60 से अधिक सैन्य छावनी संचालक मंडलों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) से कहा गया है कि वे इन छावनियों को खत्म करने के बारे में अपनी राय पीएमओ को भेजें।

राजस्थान में तीन जगह अजमेर, नसीराबाद और जयपुर में और मध्य प्रदेश में महू, जबलपुर, सागर, पचमढ़ी, मुरार (ग्वालियर) सैन्य छावनी संचालक मंडल हैं। इस विचार की उत्पत्ति के मूल बिंदु और इसे मिले समर्थन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि यह साधारण प्रतीत होने वाला ‘नागरिक सुविधाएं मुहैया कराने का प्रश्न मात्र नहीं है जिस रूप में इसे प्रस्तुत किया गया है। दरअसल यह समस्या आज की नहीं है। इस समस्या की नींव भारत की आजादी के शुरूआती वर्षों में पड़ी जो धीरे-धीरे नष्ट होते सैन्य प्राधिकरणों के साथ गहराती गई।

नेतृत्व की चुप्पी से इसे और बल मिला और 2021 में यही हो रहा है। लेफ्टिनेंट कर्नल अथवा उसके समकक्ष रैंक का एक अधिकारी 1950 के दशक के मध्य तक रक्षा मंत्रालय में कैम्प कमांडेन्ट के पद पर कार्यरत होता था। इस अधिकारी के पास अन्य दायित्वों के अलावा एक काम और होता था, वह था – साउथ ब्लॉक के रक्षा छोर में तैनात सभी लोगों को कमरे आवंटित करना और उनके रहने की व्यवस्था करना। यह व्यवस्था जारी रही, जब तक कि इस नियु्क्ति को कमीशन प्राप्त अफसर के लायक नहीं समझा गया। इसलिए अब संयुक्त सचिव (प्रशिक्षण) और मुख्य प्रशासनिक अधिकारी सभी को निवास आवंटित करते हैं। 21वीं सदी में बदलती जीवनशैली के हमलों की पहचान इस तरह की जा सकती है कि कैंटीन सुविधाएं कम कर दी गईं और 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस परेड के बाद 29 जनवरी को होने वाले कार्यक्रम ‘बीटिंग रीट्रीट’ में सेना की ऐतिहासिक धुनों की संख्या कम और बॉलीवुड की धुनों की संख्या ज्यादा हो गई हैं।

सैन्य छावनी समाप्त करने के इस विचार से पहले गत वर्ष सैन्य पेंशन में बदलाव के प्रस्ताव को लेकर काफी बवाल मचा था। यह प्रस्ताव ऐसे वक्त लाया गया जबकि चीन भारतीय सीमा की सैकड़ों किलोमीटर जमीन पर डेरा डाले बैठा है। सेना के लिए संसाधनों में कमी करते जाना ‘न्यू नॉर्मल’ है, जबकि सेना देश को मुश्किल परिस्थितयों से बाहर निकालने में मदद करती है। परन्तु अगर सैन्य छावनियों को समाप्त करने का प्रस्ताव सिरे चढ़ता है, तो सैनिक पीछे मुड़ कर देखने को मजबूर हो सकते हैं। सैन्य छावनी संचालक मंडल की जिम्मेदारी सैन्य एवं आम नागरिक क्षेत्र दोनों के प्रति है। इसके सदस्यों की नियुक्ति सेना से होती है जबकि उनका चुनाव आम नागरिकों के मतों से होता है। इन दोनों के बीच सतत संघर्ष रहता है। ज्यादातर विवाद की वजह जमीन और उसका उपयोग होता है। सैन्य अधिकारी जहां इस भूमि को जस का तस रखना चाहते हैं, जैसी कि उन्हें मिली थी, वहीं आम नागरिक निरंतर बदलाव की मांग करते हैं।

पीएमओ द्वारा सैन्य छावनी बोर्ड समाप्ति को लेकर सुझाव मांगने के पीछे एक और वजह मानी जा सकती है, और वह यह कि सैन्य जीवनशैली और संस्कृति, राज करने वालों की जीवनशैली से पूरी तरह अलग है। ऐसे में उन्हें लगता है, कि सेना के लोग उनकी तरह ‘देशी’ नहीं हैं, क्योंकि उनका खान-पान और रहन-सहन एकदम अलग है। परन्तु सैन्य छावनियां वे जगह हैं, जहां सैनिक अपने परिवारों को रखना सुरक्षित मानते हैं, जिस वक्त वे सीमा पर तैनात होते हैं। अगर ये छावनियां नहीं रहीं तो वे किसके भरोसे परिवार को छोड़़ कर जाना सुरक्षित मानेंगे। जाहिर है सैनिकों के परिवारों के कल्याण की तुलना में नागरिक नियंत्रण से मिलने वाली जमीनों और मतों का वजन कहीं ज्यादा है!

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो