यह सच है कि आज भी देश की आधी आबादी कृषि पर आश्रित है। किसानों की आत्महत्या पर खबरें और फिल्में बनती हैं, पर किसानों को लेकर किसी भी सरकार की कोई खास नीति नहीं है। चूंकि देश के आधे से अधिक वोटर किसान परिवारों से संबंधित हैं, चुनाव जीतने के लिए किसानों का तुष्टीकरण पार्टियों के लिए एक अहम एजेंडा बन गया है। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से पहले उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और कर्नाटक विधानसभा चुनावों के वक्त भी किसानों की कर्जमाफी के वादे किए गए, जिन्हें आंशिक रूप से पूरा भी किया गया। जाहिर है इन वादों को निभाने में राज्य सरकारों के हजारों करोड़ खर्च होते हैं। सवाल यह है कि इससे किसान के जीवन में क्या कोई बदलाव आता है? सवाल यह भी है कि किसानों की वास्तविक समस्याएं क्या हैं और उन्हें कैसे सुलझाया जाए?
उदाहरण के लिए राजस्थान के 10 बीघा जमीन के मालिक एक आम किसान की वार्षिक लागत 50 हजार से ऊपर ठहरती है, इसमें खाद, बीज, जुताई, बुआई, निराई, सिंचाई, लावणी, थ्रेशर आदि का खर्च शामिल है। इसमें अगर किसानी के काम में फुल-टाइम लगे परिवार के औसतन तीन सदस्यों की न्यूनतम मजदूरी जोड़ें तो सालभर की कुल लागत लगभग 4 लाख रुपए हो जाएगी। किसान मुख्यत: खरीफ की फसल के रूप में ज्वार, बाजरा, मक्का, तिलहन, मूंगफली आदि उपजाता है और रबी की फसल के रूप में सरसों, चना, गेहूं, जौ आदि। कुछ किसान प्रयोग के तौर पर फलों व सब्जियों की खेती/बाड़ी भी करते हैं। किसान चाहे जो फसल उपजा ले, मंडी से अपनी फसल की कीमत अधिक से अधिक 50-60 हजार ही मिलती है। अच्छा संवत हुआ तो यह राशि एक-सवा लाख तक पहुंचती है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि और ओलावृष्टि से यह दस-बीस हजार तक भी रह जाती है। ऐसे में छोटे किसान बैंकों और सहकारी समितियों से लोन लेते हैं। लोन की प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है, जिसकी वजह से बहुत छोटे और सीधे किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पाता। पिछले दिनों केंद्र सरकार ने एक योजना शुरू की – प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना। योजना का आवरण बहुत सुंदर है, पर इसके क्रियान्वयन में भारी समस्याएं हैं। कृषि मामलों के विशेषज्ञ माने जाने वाले मशहूर पत्रकार पी. साईनाथ ने फसल बीमा योजना को सबसे बड़ा भ्रष्टाचार कहा है।
किसानों की आय बढ़ाने के लिए अक्सर सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की बात करती हैं लेकिन इसके साथ भी कई दिक्कतें हैं। सबसे बड़ी दिक्कत है कि सरकारी एजेंसियां सरकारी खरीद पर किसानों की उपज नहीं खरीदती हैं। इस खरीद के नियम-शर्तें और प्रक्रिया जटिल हैं और क्रियान्वयन समस्याग्रस्त है। दूसरा फसलों के दाम बढऩे से सरकार को महंगाई का भय सताता है, इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी कोई खास इजाफा नहीं किया जाता। एक अन्य समस्या भी है जिसकी ओर रघुराम राजन तथा अन्य अर्थशास्त्रियों ने अपनी रिपोर्ट में ध्यान दिलाया कि कई बार पर्याप्त उत्पादन होने के बावजूद कृषि उपजों का आयात किया जाता है जिसकी वजह से किसान को अपनी उपज का बाजार में सही दाम नहीं मिल पाता। दरअसल सच्चाई यह है कि बाजार और वितरण तंत्र तक किसान की पहुंच है ही नहीं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति किसानों की उपज के दाम सही दिलाने की दिशा में कारगर हो सकती है, बशर्ते इसमें कुछ बुनियादी सुधार हों। न्यूनतम समर्थन मूल्य फसल तैयार होने से ठीक पहले निर्धारित किया जाए ताकि मौसम आदि के नुकसान व लागत के बारे में एक अंदाजा हो। यह सुनिश्चित किया जाए कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा तमाम किसानों को सुलभ हो। इस प्रक्रिया में अड़चन डालने वाले अधिकारियों, बिचौलियों के लिए दण्ड के सख्त प्रावधान हों। न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करते वक्त क्षेत्रवार, किसानवार विविधता का ध्यान रखा जाए। इन स्थितियों में किसानों के कर्ज माफ करने से निश्चित तौर पर किसान परिवारों को तात्कालिक राहत तो मिलेगी, लेकिन उनकी समस्याओं का कोई समाधान नहीं होगा। किसान ऋणों तक बहुत कम किसानों की पहुंच है। किसानों की कर्जमाफी का फायदा मुख्यत: उन्हीं तक पहुंच पाएगा।
किसान संकट में हैं लेकिन केवल लक्षणों का उपचार कारगर नहीं होगा बल्कि लक्षणों के कारणों तक जाना होगा, तभी टिकाऊ हल निकल सकेगा। तमाम सरकारों को चाहिए कि वे नीति-निर्धारण में किसानों की भागीदारी सुनिश्चित करें। खेती-किसानी से संबंधित शोधों को सरकार प्रोत्साहन दे जिससे जमीनी स्तर के अच्छे शोध हो सकें और नीति-निर्धारण के वक्त उनसे इनपुट लिए जा सकें। छोटे किसानों को खाद, बीज, डीजल, बिजली आदि में सब्सिडी दी जाए। कुल मिलाकर किसानों के लिए ऐसी नीतियां बनाएं कि उन्हें यह न लगे कि सरकार ने उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने के लिए पांच साल में याद किया है, बल्कि यह लगे कि यह सरकार, यह तंत्र उनका है।
(लेखक भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू में एसोसिएट प्रोफेसर, वर्तमान में अंकारा विश्वविद्यालय (तुर्की) में प्रतिनियुक्ति पर)