scriptसुनने और समझने की शक्ति बढ़ाएं सरकारें | Governments should increase the power of listening and understanding | Patrika News

सुनने और समझने की शक्ति बढ़ाएं सरकारें

locationनई दिल्लीPublished: Feb 25, 2021 06:59:21 am

– सरकारों की सहनशीलता इतनी कम हो गई है कि एक पोस्ट पर लोगों की गिरफ्तारी तक हो रही है।- लोगों को सिर्फ इसलिए जेल में नहीं डाला जा सकता कि वे सरकार की नीतियों से असहमत हैं।

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लोगों को सिर्फ इसलिए जेल में नहीं डाला जा सकता कि वे सरकार की नीतियों से असहमत हैं। यह टिप्पणी टूलकिट मामले में पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि की जमानत याचिका पर फैसला देते हुए दिल्ली के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा की है। उन्होंने कहा कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार के सचेत प्रहरी होते हैं। कोर्ट की यह टिप्पणी बरसों तक याद रखी जाएगी। खासकर उस वक्त जब सोशल मीडिया के दौर में सरकारों से सवाल करना अघोषित अपराध सा हो गया है। सरकारों की सहनशीलता इतनी कम हो गई है कि एक पोस्ट पर लोगों की गिरफ्तारी तक हो रही है, उन पर राजद्रोह जैसे केस लगाए जा रहे हैं। जज ने ब्रिटिशकाल के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि सरकार के अहंकार को अगर चोट पहुंची है, तो महज इसी आधार पर राजद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। आज एक ट्वीट से सरकारों के अहंकार को चोट पहुंच रही है। सरकारों को छोडि़ए, विभिन्न समाजों का भी यही हाल है। एक टिप्पणी इस देश में बखेड़ा खड़ा करने के लिए काफी है। विनय, विवेक और सहनशीलता को महत्त्व देने वाले देश में इन तीनों चीजों को जैसे तिलांजलि ही दी जा रही है।

दरअसल, दिशा रवि पर सोशल मीडिया टूलकिट को पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग तक पहुंचाने और उसे संपादित करने का आरोप लगाया गया है। पुलिस की दलील है कि इसके जरिए देश की छवि को खराब करने की साजिश रची गई। हालांकि पुलिस कोर्ट के भीतर ऐसे कोई भी सबूत पेश नहीं कर सकी। सवाल यही है कि सरकारें कुछ लोगों की आवाज से भी इतना डरती क्यों हैं? क्या कुछ आवाजें किसी देश की छवि को खराब कर सकती हैं? क्या देश इतने कमजोर हैं? भारत के संविधान ने खुलकर बोलने की आजादी दी है। यानी संविधान आपको आपकी बात रखने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन, आजकल राजनीतिक नफा-नुकसान के हिसाब से चीजों को तौला जा रहा है। सरकारों की नीतियों के विरोध में उठने वाली आवाजों को दबाया जा रहा है। यहां सरकारों को समझना चाहिए कि विरोध उनकी नीतियों का हो रहा है, न कि उनका। उन्हें तो इस देश ने ही चुनकर जिम्मेदारी दी है। बेहतर है कि सरकारें सुनने और समझने की अपनी शक्ति को बढ़ाएं और देश के भीतर उठने वाले नीतियों के विरोध को स्वीकार करें और जरूरत के हिसाब से बदलाव भी करें, क्योंकि यह देश कबीर का भी है, ‘जो कहते हैं कि निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।

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