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राज्यपाल भ्रमण पर नजर

Published: Apr 13, 2015 10:49:00 pm

मोदी सरकार चाहती है कि राज्यपाल अब निरंकुश तौर
पर कहीं भी देश में विचरण नहीं करें। जहां भी जाएं, राष्ट्रपति के साथ गृह मंत्रालय
और प्रधानमंत्री कार्यालय को बताकर जाएं

मोदी सरकार चाहती है कि राज्यपाल अब निरंकुश तौर पर कहीं भी देश में विचरण नहीं करें। जहां भी जाएं, राष्ट्रपति के साथ गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय को बताकर जाएं। साथ ही, अपने गृह राज्य तो कम ही जाएं। यह निर्देश जारी करने के पीछे मोदी सरकार की मंशा क्या है यह तो वक्त ही बताएगा पर प्रथम दृष्टया तो इसे राज्यपालों पर अंकुश रखने के उपाय के रूप में देखा जा रहा है। भारतीय संविधान में राज्यपाल की स्थिति संविधान और विधि के प्रहरी के रूप में है। नए नियम राज्यपालों को अपने दायित्व के निर्वहन में सहायक होंगे अथवा बाधक? कितने जरूरी हैं ये निर्देश, इसी पर पढिए आज के स्पॉटलाइट में जानकारों की राय…

यह शपथ लेते हैं हमारे राज्यपाल
मैं… अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं श्रद्धापूर्वक…… सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं….. (राज्य का नाम) के राज्यपाल के पद का कार्यपालन (अथवा राज्यपाल के कृत्यों का निर्वहन) करूंगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा और मैं ……… (राज्य का नाम) की जनता की सेवा और कल्याण में विरत रहूंगा। (अनुच्छेद 159)

राज्यपाल के लिए नए कायदे
गजट अधिसूचना के अनुसार राज्यपाल (भत्ते और विशेषाधिकार) संशोधन नियम, 2015 के तहत राज्यपाल को किसी भी प्रकार की यात्रा के लिए अब राष्ट्रपति से निश्चित समय सीमा में अनुमोदन मांगना पड़ेगा।

निजी दौरा
भारत के भीतर निजी दौरा करने से पूर्व राज्यपाल कम से कम दो सप्ताह पहले राष्ट्रपति सचिवालय को पत्र द्वारा सूचित करेगा। यदि प्राइवेट दौरा विदेश में किया जाना हो, उक्त आशय का पत्र कम से कम छह सप्ताह पहले राष्ट्रपति सचिवालय को भेजा जाएगा।

सरकारी दौरा

राज्य से बाहर
राज्य से बाहर सभी दौरे केवल राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से ही किए जाएंगे। कम से कम सात दिन पहले राष्ट्रपति सचिवालय को सूचना देनी होगी। राज्यपाल के ऎसे दौरों की अवधि किसी कैलेंडर वर्ष में कुल दिनों की 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है।

देश से बाहर
विदेशी दौरे करने के लिए राष्ट्रपति का अनुमोदन मांगे जाने संबंधी पत्र कम से कम छह सप्ताह पहले राष्ट्रपति के सचिवालय में प्राप्त हो जाना चाहिए। विदेशी दौरे के दौरान कार्यो का ब्यौरा इस आशय के पत्रों में स्पष्ट रूप से मदवार दर्शाया जाना चाहिए।

अन्य अपेक्षाएं
राज्यपाल संशोधन नियम 2015 में निहित अपेक्षाओं के अतिरिक्त राज्यपालों से कई अन्य अपेक्षाएं भी रखी गई हैं- दौरे के लिए राष्ट्रपति का अनुमोदन मांगे जाने के बारे में पत्रों की प्रतियां प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव और गृह मंत्री को भी पृष्ठांकित की जाएं। अपने गृह राज्य के बार-बार दौरों से बचा जाए अथवा सीमित रखा जाए।

अभी जिन राज्यों में राज्यपाल नहीं हैं
मणिपुर, असम, त्रिपुरा, बिहार, मेघालय तथा मिजोरम। मणिपुर का प्रभार 3000 किमी दूर उत्तराखंड के राज्यपाल के के पॉल के पास है। असम और त्रिपुरा का प्रभार नागालैंड के राज्यपाल पीबी आचार्य के पास है तथा बिहार, मेघालय और मिजोरम का प्रभार पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी के पास है।

अंकुश के साथ गरिमा भी जरूरी
नीरजा चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार
कई बार ऎसा देखने में आ रहा था कि राज्यपाल बहुत अधिक समय उन राज्यों से बाहर रहकर बिताते थे, जहां के वे राज्यपाल हैं। इससे ऎसा संकेत जाता था कि राज्यपाल जो राज्य का संवैधानिक रूप से प्रथम नागरिक है, वह होलीडे पर है। राज्यपाल के बाहर रहने से हालांकि संवैधानिक कार्य में बहुत बाधा तो नहीं आती है लेकिन नैतिकता तो यही कहती है कि वे जिस राज्य के राज्यपाल हैं, उन्हें वहां अधिकाधिक समय तक रहना ही चाहिए। यद्यपि कुछ राज्यपालों के कामकाज के तौर-तरीकों को देखकर तो यही लगने लगता है कि राज्यों में इस पद की आवश्यकता है भी या नहीं। इन्ही परिस्थितियों के चलते राज्यपालों के राज्य से बाहर जाने को लेकर कुछ पाबंदियों की आवश्यकता महसूस की गई होगी।

विश्वास में लेना चाहिए
कोई भी यह तो नहीं कह सकता है कि संवैधानिक कायोंü में राज्यपाल की भूमिका का कोई महत्व ही नहीं है। हां, यह जरूर है कि वे अपनी ओर से बहुत से फैसले नहीं ले पाते हैं। इस मामले में वे केंद्र सरकार पर निर्भर रहते हैं। फिर भी यह संवैधानिक पद है, इसकी गरिमा है और अपनी मर्यादा है। यदि ऎसा देखने में आ रहा है कि राज्यपाल अधिक समय तक राज्य से बाहर रहते हैं तो भी कोई कदम उठाने से पहले उन्हें विश्वास में लेना चाहिए। उन पर जो भी पाबंदियां लगाई जातीं, वे बहुत ही मर्यादित तरीके से लगाई जानी चाहिए। इससे राजभवन की छवि अच्छी बनी रहती। राज्यपाल के पद की गरिमा को आंच नहीं आती।

आंकड़े भी देने चाहिए
यह सही है कि कुछ राज्यपाल एक सीमा से अधिक समय तक अपने गृह राज्य में या अन्य राज्यों में बिताते रहे हैं। इस तरह के फैसले में उदाहरण भले ही गुजरात की राज्यपाल कमला का लिया गया हो लेकिन एक व्यक्तिके कारण इस तरह का फैसला नहीं हो सकता। अन्य राज्यपालों के संदर्भ में भी आंकड़े बताये जाते कि वे एक सीमा से अधिक समय तक बाहर रहे हैं, ऎसे में इस फैसले को बिल्कुल सही कहने में झिझक नहीं होती। इस तरह से उनकी स्वायत्तता पर अंकुश लगाना पद की गरिमा के अनुकूल नहीं लगता।

सवाल तो उठेंगे ही
राज्यपालों के राज्य से बाहर जाने संबंधी आदेश से राज्यपालों की स्वायत्तता पर अंकुश तो निश्चित तौर पर लगेगा। गृह मंत्रालय के हालिया निर्देशों से राज्यपाल को राज्य से बाहर जाने के लिए औपचारिक तौर पर राष्ट्रपति से अनुमोदन लेना होगा लेकिन यह तो सभी को पता है कि अनुमोदन पर नियंत्रण तो केंद्र सरकार का ही रहेगा। इस परिस्थिति में भले ही राज्यपाल के संवैधानिक दायित्व में तो कोई परेशानी नहीं आएगी लेकिन जिस राज्यपाल को सरलता से अनुमति मिलेगी, उनके लिए यह संदेश तो जरूर जाएगा कि वे सरकार के चहेते हैं। इसी तरह जिन्हें सरलता से अनुमति नहीं मिलेगी, उनके लिए यही संदेश जाएगा कि वे सरकार के चहेते नहीं है। ऎसी स्थिति ना तो सरकार और ना ही राज्यपालों के लिए अच्छी है। राज्यपाल की गरिमा और उस पद की मर्यादा के मद्देनजर इस नियंत्रात्मक स्थिति से बचा जा सकता था।

सीमाओं का ज्ञान भी जरूरी
प्रो. उज्जवल सिंह, दिल्ली विवि
हर निर्णय का एक संदर्भ होता है। अगर पिछले दिनों ऎसा कुछ देखने में आया है कि राज्यपाल बहुत अधिक राज्य के बाहर रहते हैं तब तो इस तरह दिशा-निर्देशों का कोई औचित्य है, अन्यथा इनका कोई औचित्य नहीं है। पर सिद्धांतत: इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि हर पद के दायित्व के साथ उसकी सीमाएं भी होती हैं और सभी संवैधानिक अथवा अन्य पदों की सीमाओं को भी स्पष्ट रूप व्यक्त किया जाना चाहिए।

अगर राज्यपाल के लिए यह कहा गया है कि वह राष्ट्रपति के अनुमोदन से ही राज्य के बाहर जाएगा अथवा कैलेडर वर्ष के 20 प्रतिशत दिन (73 दिन) से अधिक समय तक राज्य के बाहर नहीं जाएगा तो इसमें अपने आप में कुछ भी गलत नहीं है। हर व्यक्ति को अपनी सीमाओं का ज्ञान और विधि के प्रति सम्मान तो होना ही चाहिए। अब इसका क्या असर होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता। यह तो समय के साथ पता चलेगा कि इन निर्देशों की व्यवहारिक उपयोगिता क्या हुई। इसके लिए अभी हमें इंतजार करना होगा।

हां, यह सही है कि राज्यपाल को सिर्फ राष्ट्रपति से ही छुट्टी के लिए अनुमोदन लेना चाहिए। राष्ट्रपति से छुट्टी लेते समय राज्यपाल गृहमंत्री तथा प्रधानमंत्री सचिव को भी सूचित करे, यह उचित नहीं कहा जा सकता। इसका कोई औचित्य नहीं है।

निरर्थक प्रयास हैं यह
भीष्म नारायण सिंह, पूर्व राज्यपाल
पहली बात तो यह है कि राज्यपाल खुद ही काफी परिपक्व और नियम-कायदे के जानकार लोग होते हैं। उन्हें गृह मंत्रालय से किसी शिक्षक की जरूरत नहीं होती कि वह उन्हें नियम-कानून सिखाए। बेहतर होता कि गृह मंत्रालय इस पर ज्यादा ध्यान देता कि जिन राज्यों में आज तक कोई राज्यपाल नहीं हैं, वहां कैसे जल्दी से जल्दी राज्यपाल नियुक्त किए जा सकते हैं। जिन राज्यों में कोई राज्यपाल नहीं है, उनमें कई तो बेहद संवेदनशील राज्य हैं। इसलिए गृहमंत्रालय की प्राथमिकता इन राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति होना चाहिए। राज्यपालों को उनके दायित्व याद दिलाने में गृह मंत्रालय को समय बर्बाद करने की जरूरत नहीं है।

इससे कुछ नहीं बदलेगा
इन निर्देशों को जारी करने के पीछे गृहमंत्रालय की जो भी मंशा रही हो, मैं छह राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में राज्यपाल के अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि यह प्रयास इसलिए निरर्थक हैं क्योंकि इससे कुछ बदलेगा नहीं।

राष्ट्रपति करते थे अनुमोदन
राज्यपाल पहले भी राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद ही राज्य छोड़कर जाते थे, वह होम स्टेट हो या कोई दूसरा राज्य, उसकी सूचना राष्ट्रपति को रहती थी। एक महीने से ज्यादा समय के लिए देश के बाहर जाने पर अवश्य किसी पड़ोसी राज्य के राज्यपाल को प्रभार सौंपना होता है। पर इससे कम समय के लिए ऎसी कोई प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती थी। राज्यपाल एक उच्च और गरिमाशाली पाद होता है।

जरूरी बातों पर दें ध्यान
भारतीय संविधान के अुनसार राष्ट्रपति और राज्यपाल दो ही पद होते हैं जो संविधान और विधि के परिरक्षण, संरक्षण तथा प्रतिरक्षण की शपथ लेते हैं। इसलिए वे पहले से नियम-कायदों के जानकार होते हैं। राज्यपालों को किसी गुरू की जरूरत नहीं होती। बेहतर होता कि अखबारों को इस संबंध में समाचार छपवाने के बजाय गृहमंत्रालय अन्य जरूरी बातों पर अपना ध्यान केंद्रित करता।

राज्यपालों के इस तरह समाचार जानने के लिए अखबार पढ़ने की जरूरत नहीं होती। गजट नोटिफिकेशन राज्यपालों के पास जाते हैं, जिसमें वो यह दिशा-निर्देश पढ़ सकते हैं। लगता नहीं कि इस तरह के दिशा-निर्देशों से राज्यपालों के कामकाज पर कोई असर पड़ेगा। सकारात्मक अथवा नकारात्मक, इससे राज्यपाल किसी तरीके से प्रभावित नहीं होंगे।

रूकना ही चाहिए संसाधनों का अपव्यय
राजेश रपरिया, वरिष्ठ पत्रकार
राज्यपाल राज्य का सर्वोच्च संवैधानिक पद है और राज्य की कार्यकारी शक्तियां उसमें निहित होती हैं। लेकिन, देश में राज्यपाल की नियुक्तिसे ही विवादों को जन्म मिल जाता है क्योंकि केंद्र में काबिज सत्ताधारी दल ज्यादातर अपने बुजुर्ग नेताओं को ही राज्यपाल बनवाती है। इन परिस्थितियों में वह राज्य का संवैधानिक मुखिया भी होता है और केंद्र का राज्य में प्रतिनिधि भी।

निरंकुश खर्चो पर रोक
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय संवैधानिक इतिहास में यह पद अपनी शक्ति के दुरूपयोग के लिए ज्यादा चर्चित रहा है। राज्यपाल कई बार अपने कार्यकलापों के कारण भी मखौल का पात्र बनते रहे हैं। वे अकसर अपने विवेकाधिकार के दुरूपयोग के लिए ज्यादा याद रह जाते हैं। बिहार में माझी का घटनाक्रम इसका नवीनतम उदाहरण है। लेकिन कई राज्यपाल अपने शाही खचोंü से भी पद की गरिमा घटाते रहे हैं। राज्यपालों के संदर्भ में गृह मंत्रालय ने हाल ही में जो निर्देश जारी किए हैं, वे राज्यपालों के निरंकुश खचोंü और उनकी यात्राओं पर रोक लगाते हैं।

वैसे राज्यपाल को भरपूर सुख-सुविधाएं प्राप्त हैं। उनका राजभवन सामंती युग को ताजा कर देता है। उनका वेतन एक लाख रूपए से अधिक है। भत्ते भी भरपूर मिलते हैं। राजभवन का कोई किराया उन्हें नहीं देना होता है। राज्यपाल को कई वैधानिक दायित्व पूरा करने के लिए यात्राएं करनी पड़ती हैं लेकिन जब उनकी यात्राएं जब उनके गृह राज्य में ज्यादा होती हैं तो उनके कृत्य पर सवाल उठना लाजिमी है।

जब राज्यपालों की ऎसी यात्राएं सीमा से ज्यादा ही हो गईं तो उन्हें साल भर में 73 दिन से ज्यादा बाहर न रहने के लिए कहा गया है। विदेश यात्राओं के लिए भी उन्हें राष्ट्रपति के निर्देश लेने पड़ेंगे। देखा यह गया है कि राज्यपाल अपने गृह राज्य की राजनीति में अपने वजूद को बनाये रखने के लिए सरकारी खर्च पर यात्राएं करते हैं जो सरकारी संसाधनों का भारी अपव्यय है।

जनप्रतिनिधियों पर भी हो अंकुश
राज्यपाल की यात्राओं पर अंकुश के साथ ही यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि सांसदों, विधायकों और सरकारी नौकरशाहों की विदेश यात्राओं पर भी हर साल अरबों रूपये खर्च होते हैं। उनकी यात्राओं से देश को क्या फायदा हुआ, इसके बारे में मुकम्मल जानकारी शायद ही उपलब्ध हो। दुख की बात यह भी है कि इन यात्राओं के दौरान, इनका आचरण भी कई बार देश के लिए शर्म का कारण बना है।

इस प्रकार की यात्राओं और उनके मनमाने खचोंü पर श्वेतपत्र आना चाहिए क्योंकि जनता के गाढ़े पसीने की कमाई का बड़ा हिस्सा इनकी भेंट चढ़ जाता है जो किसी कल्याणकारी कार्य के लिए उपयोग आ सकता है। राज्यपालों की अनावश्यक यात्राओं की तरह ही जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों की यात्राओं के अपव्यय पर भी अंकुश लग जाए तो हर जिले में सार्वजनिक सुविधाएं सृजित हो सकती है।
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