scriptप्रयासों पर पत्थर | Govt efforts and public response on corona | Patrika News

प्रयासों पर पत्थर

locationजयपुरPublished: Apr 10, 2020 10:38:11 am

Submitted by:

Gulab Kothari

कोरोना का हमला इतना भारी पड़ेगा, किसने सोचा था। धारा-144 से शुरू हुई निषेधात्मक कार्रवाई आज कर्फ्यू और महाकर्फ्यू तक पहुंच गई। क्या यह प्रशासन की हार है अथवा मानवता स्वयं को लज्जित कर रही है?

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– गुलाब कोठारी

आज संपूर्ण विश्व कोरोना महामारी को हराने के लिए युद्धरत है। विश्वभर में हम लापरवाही के दुष्प्रभावों को भी देख रहे हैं। साधनों की कमी का असर भी देख रहे हैं। कहीं राजनीति भी हो रही है, तो कहीं सांप्रदायिकता का चोला भी दिखाई दे रहा है। कोरोना का हमला इतना भारी पड़ेगा, किसने सोचा था। धारा-144 से शुरू हुई निषेधात्मक कार्रवाई आज कर्फ्यू और महाकर्फ्यू तक पहुंच गई। क्या यह प्रशासन की हार है अथवा मानवता स्वयं को लज्जित कर रही है?

कोरोना के ज्यादा प्रभाव वाले शहरों को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा जहां भी कानून तोड़ा जा रहा है, वहां महामारी का फैलाव भी ज्यादा हो रहा है। जयपुर में कर्फ्यू तोड़ कर राशन बांटने का मामला हो या इंदौर में स्वास्थ्यकर्मियों से दुव्र्यवहार का-कुछ स्थानीय नेताओं की मनमानी की सजा आम नागरिकों को भुगतनी पड़ रही है। कल जयपुर के परकोटे में महाकर्फ्यू के दौरान कुछ लोग कर्फ्यू तोड़ कर राशन बांटने किशनपोल बाजार की नमक-मण्डी क्षेत्र में पहुंचे। ये सत्तादल के कार्यकर्ता थे जिनका समर्थन विधायक अमीन कागजी ने किया। क्या सत्ता पक्ष के लिए कर्फ्यू का उल्लंघन न्यायोचित था? कैसे 300-400 लोगों का इकठ्ठा होना उनको रास आया! पुलिस, सरकार ने क्या कार्रवाई की। पुलिस ने लाठियां भांजी और बस! लोगों को मार खानी पड़ी क्योंकि सत्ता के नशे में, निडर होकर लोगों ने कर्फ्यू की, लॉकडाउन की या सरकार के आदेशों की धज्जियां उड़ाईं? विधायक के समर्थन से छुटभैय्ये नेता कार्यकर्ताओं सहित खुले आम कानून का उल्लंघन करें, फिर भी किसी पर कोई कार्रवाई न हो? क्या विधायक एक कौम का प्रतिनिधि होता है? क्या उसका देश के कानून को तोडऩे वालों का समर्थन करना उचित था? सरकार चुप क्यों है?

यह नजारा जयपुर में ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। यह राष्ट्रव्यापी एक विशेष चिन्तनधारा का हिस्सा ही माना जाएगा। घटना हो जाना, अनजाने में लापरवाही या चूक हो जाना एक बात है और सोच-विचार कर कानून से खिलवाड़ करना अपराध है। निजामुद्दीन की आग अभी भी विश्वपटल पर सुलग रही है। देश में भी कोने-कोने में उसकी चिंगारियां उछल रही हैं। उसके साथ स्थानीय लोगों का विरोध करना, कोरोना के विरुद्ध जूझ रहे योद्धाओं पर पत्थर बरसाना वैसा ही नजारा है, जैसा हम जम्मू और कश्मीर में देख चुके हैं। कानून की बंदिश क्यों स्वीकार्य नहीं हो पा रही है? क्यों सवाईमाधोपुर में पुलिसकर्मियों पर पथराव किया गया? क्यों धौलपुर में पुलिस पर पथराव किया गया?

पिछले सप्ताह भर से क्यों इंदौर सुलग रहा है? पहले जांच करने गई दो महिला चिकित्सकों पर पथराव करके उनको भगाया। अगले दिन सार्वजनिक रूप से माफी मांगी। कल फिर पथराव पर उतर आए। चार लोगों पर तो रासुका लगाना पड़ा। आश्चर्य तो यह है कि पथराव की सारी घटनाएं एक ही समुदाय विशेष से जुड़ी हैं। मानो पुलिस को देखते ही उनके दिलों में चिंगारियां सुलगने लगती हों। जयपुर का रामगंज हो, मुंबई की धारावी झुग्गी हो या अहमदाबाद का दरियापुर और दाणी लीमड़ा क्षेत्र-कहीं न कहीं बीमारी के तथ्य को छुपाने, लॉकडाउन या कर्फ्यू का उल्लंघन करने या स्वास्थ्यकर्मियों के साथ दुर्व्यहार करने की बात सामने आ रही है।

यही सही है कि पार्टी कोई भी हो, सत्ता पक्ष वोटों की राजनीति को जनहित से ऊपर मानने लगा है। जनता से बड़ा पार्टी हित और पार्टी से बड़ा निजी हित। सब मौन हैं। बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे! एक ही समाधान है-जो सरकार कानून लागू नहीं करवा पाए, कुर्सी छोड़ दे या यह मान ले कि वह भी कानून तोडऩे और पत्थर बरसाने वालों के साथ है। संकट की इस घड़ी में न्यायपालिका का मौन लोकहित के विरुद्ध ही जाएगा। क्यों नहीं वह स्वप्रेरणा से कुछ गंभीर मामलों में प्रसंज्ञान ले। जनप्रतिनिधियों की तो सदस्यता तक समाप्त की जा सकती है। सत्ता का यह नंगा नाच जनता कब तक देख पाएगी, कोरोना के बाद स्पष्ट होगा।

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