हो सकता है, उमर और उसके साथी पेशेवर अपराधी और गौ तस्कर हों। हो सकता है, पहलू खां भी अपराध और गायों की तस्करी में लिप्त रहा हो लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि, क्या अपने आप को गौरक्षक कहने वालों को उन्हें जान से मारने का हक है? क्या पुलिस ने उन्हें यह अधिकार दे रखा है? क्या हमारा कानून दो अपराधियों को सडक़ पर आपस में फैसला करने का अधिकार देता है? यदि नहीं देता तब क्या यह पुलिस की नाकामी नहीं है कि, वह गौ तस्करी के आरोपी बताए जा रहे पहलू और उमर को उनकी हत्या के पहले पकड़ नहीं पाई। सब जानते हैं कि, अलवर-भरतपुर के इलाकों में गौ तस्करी की घटनाएं खूब होती हैं।
आज से नहीं बीसियों साल से होती हैं तब आज तक पुलिस ने क्या किया? प्रशासन ने क्या किया? आठ महीने हो गए, अभी तक तो पहलू खां के सारे हत्यारे पकड़े-पहचाने नहीं गए। जो पकड़े गए वे छूट गए। तब उमर के मामले में क्या होगा? परिवार को मुआवजा और परिजनों को सरकारी नौकरी तो बाद की बात है। सबसे पहला मुद्दा है मामले की निष्पक्ष जांच और हत्यारों की तुरंत गिरफ्तारी। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि, गोलियां दो तरफ से चलीं या चार तरफ से चलीं। और इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता जैसा कि हमारे परम आदरणीय गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया कह रहे हैं कि, कांग्रेस राज में भी ऐसी घटनाएं हुई।
हुई होंगी पर क्या भाजपा उन्हीं का हिसाब करने के लिए सत्ता में है? क्या इसीलिए कटारिया गृहमंत्री हैं? यदि नहीं तो कटारिया को राज्य की जनता को यह भरोसा देना चाहिए कि अब उनके गृहमंत्री रहते राज्य में ऐसी वारदात नहीं होगी। गौरक्षा का जो कानून बना है, उसकी पालना स्वयंभू गौरक्षक नहीं राज्य की पुलिस करेगी। वे जब तक गृहमंत्री हैं, तब तक एक भी गाय कटने के लिए राज्य से बाहर नहीं जाएगी और ना ही सरकारी लापरवाही से राज्य की गौशालाओं में एक भी गाय मरेगी। वे ऐसा कर पाए तो इतिहास में उनका नाम होगा। नहीं तो फिर उनके जीवन की सारी तपस्या धूल में ही मिली समझो।