केरल में बाढ़ के बाद संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) से मदद की पेशकश पर भ्रम की स्थिति और प्रस्ताव मंजूर न करने की खबरों और चौतरफा आलोचना के बाद भले ही भारत सरकार की ओर से स्पष्ट किया गया हो कि पहले से भारत में आपदा के समय विदेशी सहायता नहीं लेने की नीति है और सरकार इस नीति के अनुकूल ही निर्णय लेना चाहती है, पर बदली स्थितियों में इस नीति की पुन: समीक्षा की जरूरत महसूस होती है।
निश्चित ही आपदा के समय विदेशी मदद से जुड़ा नीतिगत फैसला जिस समय लिया गया था, तब कुछ संबंधित समस्याएं या चिंताएं सामने आई होंगी। एक मुद्दा यह भी रहा कि कुछ देशों में जब तक विदेशी बचाव दल पहुंचे तब तक बचाव कार्य का बड़ा हिस्सा स्थानीय स्तर पर ही पूरा हो चुका होता है। दूसरी चिंता यह कि कहीं इस सहायता के साथ कुछ अनुचित शर्तें न लगा दी जाएं, या इसकी आड़ में प्रभाव जमाने का प्रयास न हो।
केरल के पुनर्निर्माण के लिए इस समय भारी आर्थिक मदद की जरूरत है। केरल सरकार विश्व बैंक से तीन हजार करोड़ रुपए का कर्ज लेना चाहती है। यदि यूएई या कोई अन्य देश मदद की पेशकश करता है और उसे मंजूर कर लिया जाता है तो इससे कर्ज लेने की मजबूरी कम ही होगी। अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि जलवायु परिवर्तन के दौर में विभिन्न देशों में बड़ी आपदाओं की आशंका बढ़ रही है और इसके लिए बाहरी मदद की जरूरत पड़ सकती है। विकासशील देश भी बहुत समय से मांग करते रहे हैं कि धनी देश (व विशेषकर वे देश जो ऐतिहासिक तौर पर अधिक ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार रहे हैं) जलवायु परिवर्तन व आपदाओं का सामना करने के लिए एक बड़ा कोष बनाएं। इस कोष को मान्यता तो मिली है पर अभी इस दिशा में विशेष प्रगति नहीं हुई है।
इसमें संदेह नहीं कि आपदाओं से निपटने में आत्म-निर्भरता विकसित की जानी चाहिए, पर यदि बिना शर्त कोई विदेशी सहायता मिल रही हो तो उसे स्वीकार करना प्रभावित लोगों की दुश्वारियों को जल्द से जल्द दूर करने में मददगार ही साबित होगा।