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हो स्वदेशी उत्पादों की सरकारी खरीद

Published: Mar 16, 2017 03:10:00 pm

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मंत्रालयों के सचिवों की एक समिति द्वारा ऐसी सिफारिश प्रधानमंत्री को की गई है कि ‘मेक इन इंडिया’ नीति को सफल करने के लिए सरकारी खरीद में देश में बने उत्पादों को प्राथमिकता दी जाए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद, अपनी आर्थिक नीति के जिन प्रमुख बिंदुओं की घोषणा की, उसमें मेक-इन-इंडिया प्रमुख था। गौरतलब है कि 2007-08 में जहां हमारे औद्योगिक उत्पादन वृद्धि की दर जो 15 प्रतिशत से ज्यादा थी, 2011-12 के बाद के वर्षों में शून्य और कभी-कभी ऋणात्मक हो चुकी थी। 
इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर हार्डवेयर ही नहीं, छोटी-बड़ी उपभोक्ता वस्तुओं, फर्नीचर आदि सब कुछ चीन या अन्य देशों से आने लगा था। देश में कोई नई फैक्टरी नहीं लग रही थी और पहले चल रही फैक्टरियां भी चीन में शिफ्ट होने लगी। 
जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा मात्र 15 प्रतिशत के आसपास बना रहा। ऐसे में मई 2014 में, नरेन्द्र मोदी सरकार के गठन के बाद, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया आदि नीतियों की घोषणा हुई। पहली बार व्यवसाय बढ़ाने के लिए इतने बड़े स्तर पर प्रयास हुआ। 
हालांकि इन सब प्रयासों का परिणाम आने में समय लग सकता है लेकिन यह भी सही है कि औद्योगिक एवं व्यावसायिक विकास को लेकर वातावरण में कुछ बेहतरी जरूर हुई है। नए ‘स्टार्ट-अप’ खुलने शुरू हुए हैं और सरकार का रवैया भी ‘होल्डिंग हैंड’ वाला है।
हमारे यहां औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने और उसे अपने ही देश में खपाने की बहुत संभावनाएं हैं। 1995 से अस्तित्व में आए डब्ल्यूटीओ समझौतों के अनुसार सभी सदस्य देशों द्वारा आयात शुल्क को शून्य या उसके आसपास रखने की प्रतिबद्धता निश्चित की गई थी। 
यही नहीं आयातों को रोकने के गैर-टैरिफ तरीकों को भी समाप्त करने की प्रतिबद्धता ली गई। सस्ते श्रम, सरकारी सब्सिडी और कई अनैतिक तरीकों की वजहों से चीन का माल सस्ता होने के कारण दुनिया भर के बाजारों में छाने लगा। 
यह इस बात से पता चलता है कि चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा 2015-16 में 52.7 अरब डॉलर तक पहुंच गया। दुनिया भर में चीन का व्यापार 2016 में 486 अरब डॉलर तक पहुंच चुका था। अभी तक सरकारी खरीद में भी आयातित विदेशी वस्तुओं की भरमार रहती है। 
उसके कई कारण हैं। सरकार में प्रतिस्पद्र्धी निविदाओं के आधार पर खरीद होती है। ऐसे में सस्ते चीनी उत्पाद उपलब्ध होते हैं, वहां उन्हीं वस्तुओं की खरीद हो जाती है। माना जाता है कि कम से कम 2 खरब (2 लाख करोड़) रुपए की खरीद सरकार द्वारा होती है। 
ऐसे में देश में औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने की तमाम कोशिशों को बड़ा धक्का लगता है। इसलिए जरूरी है कि देश में उत्पादन बढ़ाने के लिए स्वदेशी वस्तुओं की खरीद को प्राथमिकता मिले। नई आर्थिक नीति लागू होने से पहले भी लघु उद्योगों/खादी उत्पादों को सरकारी खरीद में प्राथमिकता दी जाती थी। लेकिन, नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद इस प्राथमिकता को बदला गया। 
पहले तो खरीद में प्राथमिकता को बदल कर कीमत प्राथमिकता में बदला गया और बाद में धीरे-धीरे इस प्राथमिकता को भी समाप्त कर दिया गया। डब्ल्यूटीओ समझौतों के बाद यह भी तर्क दिया जाता रहा है कि चूंकि हमें विदेशी कंपनियों/आयातों को भारतीय उत्पादों के समान व्यवहार देना बाध्यकारी है इसलिए हम उनकी तुलना में भारतीय और यहां तक कि लघु उद्योगों के भी सामान को प्राथमिकता नहीं दे सकते। 
अमरीकी सरकार ‘बाय अमेरिकन एक्ट 1933’ के अंतर्गत सरकारी खरीद में अमरीका के बने उत्पादों को प्राथमिकता दी जाती है। डब्ल्यूटीओ नियमों के अनुसार यदि सरकार अपने स्वयं के उपभोग के लिए उस देश के बने उत्पादों को प्राथमिकता दे तो यह नियमों का उल्लंघन नहीं होगा। लेकिन किसी कंपनी द्वारा व्यवसायिक उपयोग के लिए देश में बने समान को प्राथमिकता देने के लिए बाध्य किया जाता है तो वह डब्ल्यूटीओ का उल्लंघन माना जाएगा इसलिए जब सरकार ने जवाहर लाल नेहरू सोलर मिशन में स्वदेशी उत्पादों की खरीद की शर्त रखी तो उसे डब्ल्यूटीओ द्वारा खारिज कर दिया गया था। 
चूंकि यह स्पष्ट है कि सरकार स्वयं की आवश्यकता के लिए यदि देश में बने उत्पादों की खरीद को प्राथमिकता देती है तो इसमें डब्ल्यूटीओ समझौते का उल्लंघन नहीं होता। सोलर मिशन में जब अमरीका ने भारत द्वारा स्थानीय सौर उपकरणों के उपयोग की शर्त के खिलाफ डब्ल्यूटीओ में विवाद खड़ा किया तो भारत इस कारण से उस विवाद में हार गया क्योंकि सौर ऊर्जा विकास में लगी कंपनियों द्वारा सौर ऊर्जा की व्यवसायिक बिक्री की जानी थी। लेकिन,जब अमरीका स्वयं सरकारी खरीद में अमरीकी वस्तुओं को प्राथमिकता देता है तो भारत के खिलाफ ऐसा मुकदमा नहीं चल सकता। 
मंत्रालयों के सचिवों की एक समिति द्वारा ऐसी सिफारिश प्रधानमंत्री को की गई है कि ‘मेक इन इंडिया’ नीति को सफल करने के लिए सरकारी खरीद में देश में बने उत्पादों को प्राथमिकता दी जाए। ऐसा माना जा रहा है कि सरकार जल्दी ही ऐसी नीति को हरी झंडी देगी और वित्त मंत्रालय द्वारा इस संबंध में नियमों को जारी किया जाएगा। 
माना जा सकता है कि देश में बने उत्पादों की खरीद को प्राथमिकता देने से देश में ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम वास्तव में सफल हो पाएगा। औद्योगिक जगत भी इस प्रकार के नीतिगत प्रस्ताव से प्रसन्न दिखाई देता है क्योंकि इससे उसे अपने सामान के लिए एक आश्वस्त बाजार मिलने की संभावना बढ़ जाएगी। मोटे तौर पर स्वदेशी उत्पादों की सरकारी खरीद को बढ़ावा देकर ही हम औ्द्योगिक विकास की राह पकड़ पाएंगे। 
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